प्रकाश की ओर
प्रकाश की ओर
बौद्धिक तत्वों से उलझती रही आव्रत्त…
समझ नही पायी ,
संसार के भ्र्मजाल को |
जहाँ सत्य है ,
असत्य रहना भी स्वभाविक है |
एक स्वर्ण सद्रश,
एक मिट्टी का ढेर |
सत्य -असत्य के चक्रव्यूह में घिरी रही निरंतर |
समझ न सकी ,
क्यों ? कैसे ? और क्या ?
मनुजादता का पनपना ,
जंगली घास में कीड़ो की तरह |
और ! बन जाना धीरे धीरे विध्वन्सक सर्प |
अब ! खुल चुके है सभी द्वार बौधिकता के |
कार्यों और निकार्यो से ,
हो गया है व्यक्तित्व का निर्माण |
जाना है सत्य को ,पहचाना है सत्य को जो ,
ओत-प्रोत है जो सह्स्त्र ऊर्जाओं से|
परे है काल की परिधि की सीमाओं से|
पहचाना है मानव व मानवता को |
नश्वरता -अनश्वरता का हो गया है ग्यान ,
अत: हो गया है आवश्यक ,
जुगनू बन कर देना चुनौती ,
अन्धकार को ||
मंजूषा श्रीवास्तव’मृदुल’