पतन
पतन
देखी एक बूंद,
निकली फेनिल सागर से |
किनारे की रेत पर ,
छिपी थी आवरण में ,
मैने पूछा !
क्या डर है नश्वरता का ?
जो छुपा रखा है स्वयं को ,
वो बोली !
यह भारत वर्ष है|
यहाँ की भूमि न्यारी है
सारे जहाँ से |
संस्कृति सभ्यता की जननी है |
मैं आवरण में हूँ लिपटी ,नही गयी हूँ जकड़ी |
हृदय से वरण किया है इसे |मैने !
यही मेरी संस्कृति है |
यही है सभ्यता |
ये आवरण ,ये छाँव दी है मुझे मेरे पूर्वजों ने |
इन विचारों ने कर दिया मुझे निरुत्तर |
मैने !
फिर देखी –
एक बूँद |
छिन गया था, जिसका आवरण |
लहरों ने फेंक दिया था उसे ,
करके निर्वस्त्र |
मुझे देख सिमट गई वो ,
सहम गयी वो |
मैने कहा ठहरो !
सजल नेत्रों से बोल पड़ी वो !
घिर गया है जग’
अहम के तिलस्म में’
प्रकम्पित है रक्तरंजित है धरती |
सौरभ स्तब्ध है ,
प्यार अभिशप्त है ,
वासना फैला रही है पंख |
अनगिनत पैरों तले रौंदी हुई मैं ,
वही एक बूँद हूँ
जो थी कभी-
एक आवरण में ,
लाज से लिपटी हुई |
तिरते थे स्वप्न
आँखों में |
सबके सब बिखर गए |
लरज़ते थे गीत होंठो पे ,
सदा के लिए
मौन हो गये |
हाँ ! मैं वही एक बूँद हूँ जो थी कभी आवरण में लाज से लिपटी हुयी |
मंजूषा श्रीवास्तव’मृदुल’