क्या परिसीमन कश्मीर समस्या के समाधान में एक कदम हो सकता है ?
भारत की आजादी के साथ ही कश्मीर समस्या सामने आयी।इसका बीज 1930 के दशक में जहां अंग्रेजों ने डाल दिया था।वहीं इस राज्य के लिए निरन्तर होती रही क्षुद्र राजनीति अपने अपने और अपनों के लिए दीर्घकालिक हित साधने की परम्परा ने कोई समाधान न होने दिया।ऊपर से नाम का पाकिस्तान तथा काम नापाकियत के करने वाला पड़ोसी यहां के कमजोर नस वाले लोगों का लाभ उठाने में कभी न चूका।परिणाम हम सब आजादी के सात दशकों बाद भी भुगत रहे हैं जिस पैसे से अब तक हमारे देश के कई बड़े बड़े राज्य आदर्श बन सकते थे उनके निवासियों को आधार भूत सुविधायें मिल सकती थीं।यहां पर बरबाद हो गया और अभी भी हो रहा है।परिणाम ढाक के तीन पात से अधिक नहीं।यहां के वातावरण को दूषित करने वाले अथवा इनके हाथ पर हाथ रखकर सहयोग करने वाले एक बार भी देश के अन्य राज्यों के निवासियों के लिए धन्यवाद के दो शब्द नहीं निकाल पाते।कोई राजनीतिक सामाजिक या मानवाधिकारों का पैरोकार साफ साफ नहीं बोलता कि जिनके संसाधनों का उपयोग यहां पर हो रहा है उनको भी देश के अन्य भांगों की भांति यहां पर अपने कर्तव्य पालन का अधिकार होना चाहिए।अब बहुत दिन हो गये यह सुनते सुनते कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है।अगर है तो उसमें भी शरीर के अन्य अंगों की भांति रक्त का संचार करिये।नासूर को बन रहे कैंसर से पहले काट दीजिए।पहले की गलती चाहें किसकी भी हो उसको सुधारने का समय इससे अच्छा और नहीं हो सकता है।
परिसीमन भारत सरकार की वह व्यवस्था है जिसमें नई जनगणना के आधार पर लोक सभा और विधानसभा क्षेत्रों की सीमा का निर्धारण किया जाता है।यह राज्य के प्रतिनिधित्व के स्वरूप को नहीं बदलता।अपितु अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए उनकी जनसंख्या के आधार पर बदलाव करता है।जहां तक इसके अधिकारों का प्रश्न है तो यह एक सशक्त संस्था है जिसके आदेशों को अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती और न ही लोकसभा विधानसभाओं में इसकी पेश रिपोर्ट में कोई संशोधन किया जा सकता है।राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद यह लागू हो जाती है।पिछला नया परिसीमन तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल ने 19 फरवरी 2008 में अपनी मंजूरी के बाद लागू किया था।
भारत में उच्चतम न्यायालय के अवकाशप्राप्त न्यायधीश न्यायमूर्ति कुलदीप सिंह जी की अध्यक्षता में 12 जुलाई 2002 को परिसीमन आयोग का गठन किया गया।जिसका काम 2001 की जनगणना के अनुसार निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन करना था।पर उस समय की सरकार ने इस आयोग व इसकी रिपोर्ट को गम्भीरता से नहीं लिया और न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद 04 जनवरी 2008 को सरकार की कैबिनेट समिति ने इसको लागू करने का निश्चय किया।तब से दो दशक होने जा रहे हैं।देश में अनेक सामाजिक समीकरण बदले हैं।राजनीतिक परिस्थितियां बदली हैं अतः मेरे हिसाब से तो पूरे देश में आवश्यकता है।
देश में जहां अनेक दलों व अनेक जाति जनजातियों के पैरोकारों ने उनके लिए बार बार आवाज उठाई सबसे बड़ा हितचिन्तक बन आरक्षण लागू करवाया धरने प्रदर्शन बन्द हड़तालें और तोड़ फोड़ भी की।पर देश के अभिन्न अंग सिरमौर जम्मू और कश्मीर के अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए वहां की कभी सबसे सम्पन्न रही जाति कश्मीरी पण्डितों के लिए किसी ने आवाज न उठायी अगर यदा कदा उठायी भी तो राजनीतिक अधिक समाधान वाली कम या कहूं ढोल पिटाऊ जैसी।घाटी में 11 फीसदी गुर्जर बकरवाल और गद्दी जनजाति की आबादी है।पर एक भी सीट का आरक्षण नहीं है।जम्मू क्षेत्र में 07 सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं पर उनका कभी रोटेशन नहीं हुआ।इतने बड़े क्षेत्र लद्दाख में मात्र चार विधानसभा सीटें हैं।दूसरी ओर कश्मीर में 46 और जम्मू में 37 सीटें हैं जहां न आबादी को देखा गया और न क्षेत्रीय अस्मिता लोगों की भावनाओं को बस कुछ लोगों ने इससे अपने हित साधने का प्रयास वह भी लम्बे समय तक हर संभव कोशिश की है।
परिसीमन की सुगबुगाहट से जम्मू और कश्मीर के सामाजिक समीकरण पर प्रभाव पड़ने की संभावना है।आरक्षित सीटों पर नये रोटेशन होने हैं।न्याय संगत प्रतिनिधित्व होने से क्षेत्रीय असमानता दूर होने की बात से दशकों तक क्षेत्रीय असमानता की मोर्चा बन्दी करने वालों को मिर्च लगना आरम्भ हो गयी है।यह वही लोग हैं जिन्होंने सदैव परिसीमन का विरोध किया है अथवा ठण्डे बस्ते में डाला है।अपने राजनीतिक कद और पद का दुरुपयोग कर जम्मू और कश्मीर के सभी क्षेत्रों के सभी जाति वर्गों के साथ न्याय नहीं होने दिया केवल और केवल इसलिए कि उनकी राजनीति की दुकान चलती रहे।यह राज्य समाधान की ओर न बढ़ सके।अन्यथा कोई कारण नहीं कि इतने दशकों से केन्द्र सरकार के हर संभव प्रयासों को सफलता न मिलती।कश्मीर पुनः पृथ्वी के स्वर्ग के रूप में विख्यात न हो जाता।पड़ोसी राज्य पंजाब या दूरस्थ असम इसके उदाहरण हैं।छत्तीसगढ़ कहां से कहां पहुंच गया है।
वर्तमान सरकार यदि देश भर की जनभावनाओं और अपने घोषणापत्र दशकों की नीति के अनुसार परिसीमन के निर्णय को ईमानदारी से लागू करती है तो इस पर 2002 में रोक लगाने वालों के हौसले टूटेंगे।उनके जैसों और अलगाववादियों के हाथ भी कमजोर होंगे।बदलते सामाजिक व क्षेत्रीय समीकरण समाधान के नये द्वार खोलेंगे।भले ही यह लागू 2026 से होगा पर चुनकर आने वाले जनप्रतिनिधि राज्य के राजनीति के लिए नये समीकरण गढ़ेंगे।उनमें नया उत्साह राज्य के लिए कुछ करने का जज्बा होगा।देश के अन्य भागों के तरह कुछ परिवारों लोगों का वर्चस्व टूटेगा।कहीं पर भी यदि योग्यता और अनुभव होगा उसे आगे बढ़ने कुछ करने का अवसर मिलेगा।यह राज्य राज्यवासियों व देश के लिए बड़ा ही हितकारी होगा।