गुवाहाटी का कामाख्या शक्तिपीठ
कामाख्या, देवी या शक्ति के प्रधान नामों में से एक नाम है। यह तांत्रिक देवी हैं और काली तथा ‘त्रिपुर सुन्दरी’ के साथ इनका निकट समबन्ध है। इनकी कथा का उल्लेख कालिका पुराण और योगिनी तंत्र में विस्तृत रूप से हुआ है। समूचे असम और पूर्वोत्तर बंगाल में शक्ति अथवा कामाक्षी की पूजा का बड़ा महात्म्य है। असम के कामरूप में कामाख्या का प्रसिद्ध मंदिर अवस्थित है।
कामाख्या शक्तिपीठ गुवाहाटी, असम के पश्चिम में 8 कि.मी. दूर नीलांचल पर्वत पर स्थित है।माता के सभी शक्तिपीठों में से कामाख्या शक्तिपीठ को सर्वोत्तम कहा जाता है।
शुक्रवार को देवी के किसी शक्तिपीठ के दर्शन करना शुभ माना जाता है।
जैसा की सब जानते हैं कि पौराणिक कथा में बताया गया है कि माता सती के पिता राजा दक्ष ने एक यज्ञ किया। इस यज्ञ में देवी सती के पति भगवान शिव को नहीं बुलाया गया। यह बात सती को बुरी लग गई और यज्ञ में आने पर वह अपने पति शिव का अपमान सह नहीं सकीं। इसके चलते क्रोधित होकर अग्निकुंड में कूदकर उन्होंने आत्मदाह कर लिया। जिसके बाद शिव जी ने सती का शव उठा कर भयंकर तांडव किया। जिससे चारों ओर हाहाकार मच उठा। इस पर भगवान विष्णु ने शिव के क्रोध को शांत करने के लिए अपने सुदर्शन चक्र से सती के शव के अनेक टुकड़े कर दिए। देवी के अंगों के ये टुकड़े अलग-अलग जगहों पर गिरे। जहां जहां ये गिरे वे ही स्थान शक्ितपीठ कहलाए। कामाख्या मंदिर में देवी सती की योनि और गर्भ गिरे थे, इसलिए यहां देवी के रजस्वला होने के वस्त्र प्रसाद में मिलते हैं।
माता सती के प्रति भगवान शिव का मोह भंग करने के लिए भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से माता सती के मृत शरीर के 51 भाग किए थे।
जिस-जिस जगह पर माता सती के शरीर के अंग गिरे थे। वे सब शक्तिपीठ कहलाए। यहां देवी का योनि भाग होने की वजह से यहां माता रजस्वला होती हैं।
कामाख्या शक्तिपीठ चमत्कारों और रोचक तथ्यों से भरा हुआ है।
इस मंदिर में देवी की कोई मूर्ति नहीं है।यहां पर देवी के योनि भाग की ही पूजा की जाती है। मंदिर में एक कुंड सा है। जो हमेशा फूलों से ढका रहता है। इस जगह के पास में ही एक मंदिर है जहां पर देवी की मूर्ति स्थापित है। यह पीठ माता के सभी पीठों में से महापीठ माना जाता है।
इस पीठ के बारे में एक बहुत ही रोचक कथा प्रसिद्ध है।कहा जाता है कि इस जगह पर मां का योनि भाग गिरा था। जिस वजह से यहां पर माता हर साल तीन दिनों के लिए रजस्वला होती हैं। इस दौरान मंदिर को बंद कर दिया जाता है। तीन दिनों के बाद मंदिर को बहुत ही उत्साह के साथ खोला जाता है।
यहां पर भक्तों को प्रसाद के रूप में एक गीला कपड़ा दिया जाता है। जिसे अम्बुवाची वस्त्र कहते हैं। कहा जाता है कि देवी के रजस्वला होने के दौरान प्रतिमा के आस-पास सफेद कपड़ा बिछा दिया जाता है। तीन दिन बाद जब मंदिर के दरवाजे खोले जाते हैं। तब वह वस्त्र माता के रज से लाल रंग से भीगा होता है।बाद में इसी वस्त्र को भक्तों में प्रसाद के रूप में बांटा जाता है।
एक कथा के अनुसार उस समय नरक नाम का एक असुर था। नरक ने कामाख्या देवी के सामने विवाह करने का प्रस्ताव रखा। देवी उससे विवाह नहीं करना चाहती थी इसलिए उन्होंने नरक के सामने एक शर्त रखी। शर्त यह थी कि अगर नरक एक रात में ही इस जगह पर मार्ग, घाट, मंदिर आदि सब बनवा दे।तो देवी उससे विवाह कर लेंगी। नरक ने शर्त पूरी करने के लिए भगवान विश्वकर्मा को बुलाया और काम शुरू कर दिया।
काम पूरा होता देख देवी ने रात खत्म होने से पहले ही मुर्गे के द्वारा सुबह होने की सूचना दिलवा दी और विवाह नहीं हो पाया। आज भी पर्वत के नीचे से ऊपर जाने वाले मार्ग को नरकासुर मार्ग के नाम से जाना जाता है और जिस मंदिर में माता की मूर्ति स्थापित है। उसे कामदेव मंदिर कहा जाता है। मंदिर के संबंध में कहा जाता है कि नरकासुर के अत्याचारों से कामाख्या के दर्शन में कई परेशानियां उत्पन्न होने लगी थीं। जिस बात से क्रोधित होकर महर्षि वशिष्ट ने इस जगह को श्राप दे दिया था। इसलिए श्राप के कारण समय के साथ कामाख्या पीठ लुप्त हो गया था।
मान्यताओं के अनुसार कि 16वीं शताब्दी में कामरूप प्रदेश के राज्यों में युद्ध होने लगे थे। जिसमें कूचविहार रियासत के राजा विश्वसिंह जीत गए। युद्ध में विश्व सिंह के भाई खो गए थे और अपने भाई को ढूंढने के लिए वे घूमत-घूमते नीलांचल पर्वत पर पहुंच गए।
वहां उन्हें एक वृद्ध महिला दिखाई दी। उस महिला ने राजा को इस जगह के महत्व और यहां कामाख्या पीठ होने के बारे में बताया।यह बात जानकर राजा ने इस जगह की खुदाई शुरु करवाई। खुदाई करने पर कामदेव द्वारा बनवाए हुए मूल मंदिर का निचला हिस्सा बाहर निकला। राजा ने उसी मंदिर के ऊपर नया मंदिर बनवाया। 1564 में मुस्लिम आक्रमणकारियों ने मंदिर को तोड़ दिया था। जिसे अगले साल राजा विश्वसिंह के पुत्र नरनारायण ने फिर से बनवाया था।
कामाख्या मंदिर से कुछ दूरी पर उमानंद भैरव का मंदिर है।उमानंद भैरव ही इस शक्तिपीठ के भैरव हैं। यह मंदिर ब्रह्मपुत्र नदी के बीच में है। कहा जाता है कि इनके दर्शन के बिना कामाख्या देवी की यात्रा अधूरी मानी जाती है। कामाख्या मंदिर की यात्रा को पूरा करने के लिए और अपनी सारी मनोकामनाएं पूरी करने के लिए कामाख्या देवी के बाद उमानंद भैरव के दर्शन करना अनिर्वाय है।
कामाख्या मंदिर तंत्र विद्या का सबसे बढ़ा केंद्र माना जाता है और हर साल जून महीने में यहां पर अंबुवासी मेला लगता है। देश के हर कोने से साधु-संत और तांत्रिक यहां पर इकट्ठे होते हैं और तंत्र साधना करते हैं।माना जाता है कि इस दौरान मां के रजस्वला होने का पर्व मनाया जाता है और इस समय ब्रह्मपुत्र नदी का पानी तीन दिन के लिए लाल हो जाता है।
इस मंदिर की बहुत मान्यता है। गहरी आस्था के साथ दूर-दूर से श्रद्धालु यहाँ आते हैं। ये छोटा-सा पुराना मंदिर है और इस तक पहुँचने से पहले छोटे-छोटे कई देवी मंदिर मिलते हैं और उनके पीछे बहती ब्रह्मपुत्र की अविरल धारा दिखती है। मुख्य मंदिर से पहले जो बाजार मिलता है।वह इसे बाकी मंदिरों या धार्मिक स्थलों से बिलकुल अलग करता है। पूरे रास्ते जितनी पूजा-प्रसाद की दुकानें नहीं नजर आतीं, उससे ज्यादा टोकरी में बंद कबूतर और अन्य पक्षी दिखाई देते हैं। पूरे बाजार में छोटी-बड़ी बकरी-बकरे मिमियाते हुए पैरों से टकराते हुए हिन्दू धर्म के एक अलग रूप पर हमको सोचने के लिए विवश करते हैं।
गुवाहाटी के कामाख्या मंदिर में घुसते ही आभास हो जाता है कि ये कुछ अलग किस्म का मंदिर है। बाहर जितने जानवर मिलते हैं। उसके बराबर ही मंदिर के अंदर नजर आते हैं। प्रवेश द्वार के ठीक सामने जय माता दी का चमचमाता हुआ बैनर टंगा है। वहीं नीचे अनगिनत सिंदूर से रंगे हुए कबूतर बैठे या यूँ कहें दुबके हुए नजर आते हैं। उनके इर्द-गिर्द बकरे दौड़ लगाते एक-दूसरे से टकराते दिखाई देते हैं।
पुजारी से पूछने पर पता चलता है कि ये जानवर देवी का प्रसाद पा चुके हैं और अब मंदिर को समर्पित हैं। चूँकि इन्हें चढ़ाने वाले इनकी बलि नहीं देना चाहते थे इसलिए उन्होंने इन्हें मंदिर के हवाले छोड़ दिया है। इन जानवरों की निरीह स्थिति को देखकर लगता है कि पता नहीं ये भला हुआ कि ये बलि से बच गए या बुरा हुआ।
कामाख्या मंदिर बलि के लिए जितना मशहूर है उतना ही तांत्रिक केंद्र के रूप में भी। पूरे मंदिर की फर्श पर अजीब ढंग से पाँव चिपकते हैं। जितने आराम से और खुलेआम यहाँ बलि दी जाती है या बलि के लिए जानवर लाए जाते हैं वह देखकर लगता नहीं कि इसके खिलाफ कहीं कोई आवाज है, कोई कानून है।
मंदिर के अंदर भी उसके दक्षिण में कबूतरों को लेकर बैठा एक व्यक्ति नजर आता है। जिससे जब मैंने पूछा कि ये टोकरी किसके लिए है तो उसने कहा कि जो भी लेना चाहे। आस्था के रंग में रंगी इस प्रथा का हर कोने में बोलबाला था।
कामख्या मंदिर के मुख्य प्रांगण में मां कामाख्या के साथ कुछ अन्य देवियों के भी मंदिर हैं। इसमें काली, तारा, सोदशी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्ता, धूमवती, बगलामुखी, मतंगी और कमला देवी के मंदिर शामिल हैं। ऐसा माना जाता है कि इन सभी देवियों के पास महाविद्या है। यही कारण है तांत्रिक यहां आकर अनुष्ठान करके हैं और सिद्धी प्राप्त करते हैं।
— निशा नंदिनी भारतीय
तिनसुकिया, असम