वो जो आजकल अपना अपना सा लगता है।
मुझ को तो वो बचपन का मितवा लगता है।
यूँ चलते चलते शहर से, गाँव में आ गए,
जाने क्यूँ हर मकामं देखा देखा लगता है।
ये कह के हाथ छुडाया, के मैं तेरे काबिल नही,
ये उस का नया पैंतरा, नया कायदा लगता है।
रात की नीम खामोशी में ,जल रहा है चराग,
धडकनें है बेदार, वक्त ठहरा लगता है।
सुलगती है साँसें, सर्दी की ठिठुरती रातों में,
“सागर” मेरी रग रग में लहू जमा लगता है।
— ओमप्रकाश बिन्जवे “राजसागर”