वक्त
वैसे तो वक्त ये हर पल चलायमान होता है
सवारी पे ये अपनी आन बान शान होता है
मगर नजाने क्यूं येएक ज़माने सेहै यूं ठहरा
खड़ा है एक जगह पे जैसे के बेजान होता है
न आएंगे हमें मालूम है फिर भी न जाने क्यूं
निगाहों में वही दीदार का अरमान होता है
दिलों के नूर न देखे मुखौटों की हंसी को जो
हकीकत मान ले वाईज़ बड़ा नादान होता है
भले तन्हाई है खामोश अश्कों का है कारवां
मेरे रहवर का फ़ैज़ मेंरा निगहबान होता है
हुये हैं रुह में शामिल बनाके जबसे वो बसर
चराग़ों के बिना रौशन ये अब ऐवान होता है
— पुष्पा अवस्थी “स्वाती”