कविता

प्रजातंत्र की दुर्दशा

प्रजातंत्र का हाल बुरा है,

जनता ने जनता को ठगा है।
लोग कर रहे हाहाकार,
चारों तरफ़ है भ्रष्टाचार।
                 धर्म बिक गया,न्याय बिक गया,
                  शिक्षा भी खड़ी बीच बाज़ार।
                  सीमा पर सैनिक हैं मरते,
                   ऐश कर रही है सरकार।
दया,प्रेम,सम्मान खो गया,
इंसानियत भी हुई कंगाल।
बीच सड़क पर अस्मत लुटती,
नेता को बस कुर्सी दिखती।
                     बेरोजगारी से युवा हैं पस्त,
                     कुटीर उद्योग,व्यापार भी नष्ट।
                     किसान आत्मघात को मजबूर,
                    लोकतंत्र की गई लुटिया डूब।
दहेज प्रथा और लिंगभेद में,
खो गया नारी का मान ।
आरक्षण का दानव विकराल,
लील गया कितने ही लाल।।
— कल्पना सिंह

*कल्पना सिंह

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