हर वर्ष जला रावण
हर वर्ष जला रावण जलकर सम्पूर्ण रूप ना मर पाया
हर पाप पुण्य के बन्धन में फँस कर कोई ना तर पाया
अक्सर क्षण आता जो अन्तरपर्यन्त हमें झिझोर जाय
हम स्नेहदीप लेकर सन्देश मात्र स्वयं को जोड़ पाय
हर न्याय तंतुओं का बाना ताना अक्सर हम बुनते हैं
पर जो गन्तव्य नहीं होती फ़िर वही राह हम चुनते हैं
कब तक बेटी ना पढ़ पाये ना रख पाये खुदको रव में
कब तक नृशंष पंजे बदलेंगे बांट काट उसको शव में
जीता है कोई एक आज फ़िर जीतेगा जो कोई और
फ़िर मांगेगी बेटी कट मर जल कर अपनों में कोई ठौर
— सम्पूर्णा नन्द दुबे