गज़ल
कैसे भी थे हालात पर ईमान से रहे
दुनिया में जबतक रहे हम शान से रहे
कह न सके हम भी खुल के हाल उन्हें अपना
कुछ वो भी जानबूझकर अंजान से रहे
करके निछावर तुम पे अपनी सारी बहारें
हम खंडहरों की तरह बियाबान से रहे
उनकी यादों के आलीशान महल के
कोने में किसी फालतू सामान से रहे
कितना था तबियत में तकल्लुफ न पूछिए
अपने ही घर में हम किसी मेहमान से रहे
— भरत मल्होत्रा