जलता है आंगन
ग़ज़ल
जलता है आंगन, तपती है देहरी।
सुबह से शुरू होने लगती दोपहरी।।
आसानी से अब ये पटती कहाँ हैं।
दरारें दिलों की हुई इतनी गहरी।।
कानों में गूंजे सिक्कों की खन खन।
दलीलें कहाँ से सुनेंगी कचहरी।।
बस उंगली उठातीं हैं एक दूसरे पर।
आवाम-ए-मुल्क, अंधी गूंगी बहरी।।
निकलने लगी ये तो कद से भी ऊँची।
गुनाहों की फेहरिस्त यूँ लम्बी ठहरी।।
सड़कों पे तन, सर्द रातों में अकड़ें।
मजारों पे चादर रुपहली सुनहरी।।