कहानी

अधूरी मन्नत

दमयंती की आँखों के सामने चाहे स्वच्छ अनंत आसमान था, मगर उसके मनस्पटल पर घोर काले बादल उमड़-घुमड़ मचा रहे थे. सहसा बिजली सी कौंधी और बादल बरसने लगे. उसका हाथ बरबस ही भीगे हुए गालों पर चला गया. अचानक दमयंती के मनस्पटल पर एक चित्र उभरा और उसने खुद को अपनी उम्र की ४८ वीं सीढ़ी से नीचे उतरते पाया. हर सीढ़ी पर भूली बिसरी यादें अपना अपना अक्स दिखाती हुई गुजरने लगीं और वो ज्योंही १२ वीं सीढ़ी पर पहुँची, उसे माँ की आवाज़ सुनाई दी जो उसी को पुकार रही थी.

-दम्मो री…ईईईई…कहाँ हो बिटिया?

“पढ़ रही थी अम्मा!” आवाज़ सुनकर आँगन के बाहरी हिस्से में लगे नीम के पेड़ की छाया में बैठी हुई १२ वर्षीय दमयंती माँ के सामने आकर खड़ी हो गई.

-इतना पढ़कर भी क्या करेगी बेटी…ससुराल में तो चूल्हा-चौका ही सँभालना है न! आज स्कूल की छुट्टी है तो ज़रा दुकान पर चली जा और पिताजी को भोजन के लिए घर भेज दे.

“ठीक है अम्मा, जा रही हूँ, मगर मुझे पढ़ाई के लिए मत टोका करो, मैं बड़ी होकर मास्टरनी बनना चाहती हूँ.”

-मति मारी गई है तेरी…भला ब्याह के बाद तुझे नौकरी कौन करने देगा?

“अम्मा, अभी से यह सब क्यों सोचूँ? मैं ज़रूर मास्टरनी बनूँगी देख लेना हाँ…

-अच्छा जल्दी जा…दीवाली में एक ही महीना बाकी है, इसी सीज़न में दिए और लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियों की बिक्री से तगड़ी कमाई हो जाती है, बाकी के महीने तो कभी कभार ही मिट्टी के बर्तन बिकते हैं. यों तो गर्मियों में घड़े और सुराहियों से भी खूब कमाई होती थी पर अब घर-घर में फ्रिज की उपस्थिति ने उनके गढ़ में सेंध लगा दी है बेटी… फिर तेरे ब्याह के लिए भी तो रकम जोड़नी है न…

“जा रही हूँ अम्मा पर बार बार यह ब्याह वाली बात मत किया करो.”

गरीब कुम्हार दम्पति की बेटी दमयंती गाँव के एकमात्र हाईस्कूल में कक्षा सातवीं की छात्रा थी. वो पढ़ाई के साथ-साथ घर पर माँ तथा दुकान पर पिता के कामों में हाथ बँटाती और मौका पाकर जब-तब आँगन वाले नीम के पेड़ के नीचे किताबें लेकर पहुँच जाती तथा मन लगाकर पढ़ती रहती. वैसे तो वो हर कक्षा में पास होती आई थी मगर उसका कक्षा में प्रथम आने का सपना पूरा नहीं हो पाता था. बचपन से ही वो हर दीवाली पर माँ को लक्ष्मी मैया की नई प्रतिमा के आगे बड़ा सा दिया जलाकर पूजा करते हुए देखती आई थी. माँ उसे तीन दिन तक दिए की देखरेख की जवाबदारी सौंपकर कहती,

-देखो दम्मो, इस दिए की लौ कम होने लगे तो बाती सरकाकर कुछ ऊपर करना और दिए में तेल भी डालती रहना…तीन दिन-रात तक यह दीपक ऐसे ही जलते रहना चाहिए, अगर बीच में ही बुझ गया तो लक्ष्मी मैया नाराज़ हो जाएगी.

“फिर क्या होगा अम्मा…?” दम्मो मासूमियत से पूछ बैठती.

-देखो बेटी, पूजा के समय हम प्रार्थना करके लक्ष्मी मैया के आगे मन्नत मानकर जो इच्छा करते हैं वो ज़रूर पूरी होती है, पर यह दीपक बीच में ही बुझ गया तो अपशगुन होता है और इच्छा पूरी होने में बाधा आ जाती है.

तब से दमयंती हर दीवाली पर लक्ष्मी मैया के आगे सुन्दर फूल चढ़ाने की मन्नत मानकर आगे पढ़ते रहने की इच्छा करती और तीन दिन-रात तक दिए की जी जान से देखरेख करती. दिया बुझने के डर से रात में भी उसे नींद नहीं आती और वो किताबें लेकर बैठ जाती. इस बहाने उस रोशनी में उसकी पढ़ाई भी हो जाती. दीवाली के बाद भी उसका उत्साह पढ़ाई में बना रहता और हर बार परीक्षा में अच्छे अंकों से पास होकर मन्नत पूरी करना न भूलती. सातवीं कक्षा में आने पर उसने मैया के आगे कक्षा में प्रथम आने की इच्छा की और अधिक मेहनत करने लगी, फलस्वरूप वो कक्षा में प्रथम आ गई. उसे यह सब पूजा और अखंड दीपक का चमत्कार ही लगता, लेकिन यह जिज्ञासा बनी रहती कि आखिर ऐसा होता कैसे है? आखिर एक दिन उसने अपनी मास्टरनी से इस बारे में पूछा-

“दीदी, यह सब कैसे होता है?”

-देखो बेटे, हम जो सोचते हैं, उसे पूरा करने की मन में इच्छा बनी रहती है और ये विचार वायुमंडल में तरंगित होकर हमारे आसपास वैसा ही वातावरण उत्पन्न कर देते हैं और हम इसे चमत्कार समझ लेते हैं. पूजा और आस्था ही एक ऐसा माध्यम है जो हमारी सोच को पवित्र और निर्दोष बनाता है और हमें फल भी वैसा ही मिलता है.

दमयंती को सारी बात समझ में आ गई और अब वो हर साल अपनी कक्षा में प्रथम आने लगी.

उम्र के १७ वें पायदान तक पहुँचते-पहुँचते होते-होते उसकी आस्था के आयाम और गहरे होते चले गए. ११ वीं कक्षा उसने प्रथम श्रेणी में पास कर ली. वो तो आगे भी पढ़ना चाहती थी लेकिन एक तो गाँव में कालेज नहीं था, दूसरे माँ-पिता को उसके ब्याह की चिंता सताने लगी थी. उम्र का तकाजा भी था, अब ब्याह की बात सुनकर दमयंती बुरा नहीं मानती थी, बल्कि उसके दिल की धड़कनें बढ़ जातीं और गुदगुदी सी होने लगती थी और वो एक संपन्न व सुन्दर, राजकुमार जैसे पति की कल्पना में खो जाती. घरेलू परिस्थितियों के चलते मास्टरनी बनने का विचार उसने यह सोचकर मन में ही सँजोकर रख लिया कि ससुराल में अवसर मिला तो वो ज़रूर अपनी हसरत पूरी करेगी. उसके सौंदर्य और बुद्धिमता की चर्चा पूरे गाँव में फ़ैल चुकी थी, लड़के वालों के रिश्ते भी आने शुरू हो गए थे. इस बार दीवाली पर दमयंती ने लक्ष्मी मैया की प्रतिमा के आगे स्वयं अखंड दीपक जलाया और पूजा के बाद सुन्दर और संपन्न पति की कामना करके ससुराल में भी अखंड दीपक जलाते रहने की मन्नत मानी.

लक्ष्मी मैया उसकी इच्छा कैसे पूरी नहीं करती? उसके गुणों से रीझकर पास के गाँव में ही एक सजातीय संपन्न परिवार में उसका रिश्ता वैभव के साथ तय हो गया. वैभव अपने माँ-पिता का इकलौता पुत्र था, ससुर जी का मिट्टी के पात्रों और मूर्तियों का थोक व्यापार था लेकिन वैभव गाँव के स्कूल में शिक्षण कार्य करने के साथ ही बचे समय में पिता की सहायता भी कर दिया करता था दमयंती ने सोचा भी न था कि उसकी इच्छा इस कदर पूरी हो जाएगी और उसे शिक्षक पति मिलने के साथ ही उसका शिक्षिका बनने का सपना भी साकार होगा जाएगा. सगाई के समय वो अपने सपनों के राजकुमार को देखकर फूली नहीं समाई.

आखिर २० वर्ष की आयु में ही वो दुल्हन बनकर ससुराल आ गई और नवजीवन के पहले सोपान पर पैर रखा. सास-ससुर उसे बहुत प्यार-दुलार के साथ रखते थे. वैभव तो उसके रूप गुणों पर फ़िदा था ही. तीन माह बीतते न बीतते वो गर्भवती हो गई. अब उसकी सारी इच्छाएँ पति और आने वाली संतान पर ही केन्द्रित हो गई थीं. वो अगली दीवाली का, जो ६ माह बाद आने वाली थी, बेसब्री से इंतजार करने लगी.

लेकिन देवी-देवता अगर इस तरह इंसानों की इच्छाएँ पूरी करने लगें तो सृष्टि-चक्र में गतिरोध ही न आ जाए! लम्बे जीवन सफ़र में हर इंसान के लिए भाग्य और कर्म की किताब पर भव-बाधाएँ भी उसके जन्म के साथ ही अंकित हो जाती हैं जिन्हें हौसलों से पार करके ही मंजिल तक पहुँचा जा सकता है. दमयंती के जीवन में भी एक दिन अचानक भूचाल सा आ गया. गर्भवती होने के दो महीने बाद ही एक सड़क दुर्घटना में वैभव की दुर्घटना स्थल पर ही मृत्यु हो गई और दमयंती के भाग्य को दुर्भाग्य के कोहरे ने लील लिया. सास-ससुर ने भी बिना आगा-पीछा सोचे उसे ही अपशगुनी मानकर मायके का रास्ता दिखा दिया. तकदीर के तूफ़ान ने उसे फिर उसी आँगन में उतार दिया जहाँ से बड़े अरमानों के साथ वो ससुराल के लिए विदा हुई थी. हैरान और विवश दमयंती माँ लक्ष्मी के इस अन्याय पर हतप्रभ थी. रोते-रोते माँ से सवाल करती-

“अम्मा, मुझे लक्ष्मी मैया ने अखंड सौभाग्यवती होने का वर माँगने का अवसर क्यों नहीं दिया? दीवाली में दो माह ही तो शेष थे…

“बेटी, शायद तेरा भाग्य बदलने की शक्ति उसमें भी नहीं रही होगी. वरदान भी ईश्वर में आस्था बनाए रखने के लिए ही होते हैं. इतना शोक न करो, अपनी आने वाली संतान की खातिर तुम्हें और न जाने कितने तूफानों से गुज़रना पड़े…जब तक हम जीवित हैं तुम्हें यहाँ कोई तकलीफ नहीं होगी.”

धीरे-धीरे दमयंती ने अपने नसीब से समझौता कर लिया. इस दीवाली पर उसने मन्नत मानकर माँ लक्ष्मी से अपनी भावी संतान के निर्विघ्न जन्म और निरोगी दीर्घजीवन के लिए दुआ माँगी. समय पर उसने स्वस्थ और सुन्दर पुत्र को जन्म दिया. इतना कुछ खोने के बाद जो मिला, उसी को जीने का लक्ष्य बनाकर कुछ समय बाद उसने गाँव के अपने ही स्कूल की प्रधानाध्यापिका के सहयोग से अध्यापन कार्य के लिए आवश्यक औपचारिकताएँ पूरी करके ज़िन्दगी की किताब में नया अध्याय जोड़ दिया. शिक्षिका बनने की उसकी पुरानी हसरत इस तरह उसका सौभाग्य छिनने के बाद पूरी होगी, यह वो कब जानती थी, पर जो कुछ शेष था उसे कुदरत का उपहार मानकर उसने नए सफ़र पर कदम बढ़ा दिया. शिशु की देखरेख की जवाबदारी माँ ने अपने ऊपर ले ली.

दमयंती अब हर दीवाली पर सिर्फ पुत्र, अजीत की सुख समृद्धि और दीर्घ जीवन के लिए मन्नत मानकर अखंड दीपक जलाती. धीरे-धीरे अजीत बड़ा होने लगा और पाँच साल का होते ही दमयंती के स्कूल में ही उसे दाखिला मिल गया. वह भी अपनी माँ की तरह प्रतिभाशाली था. दमयंती के जीवन में एकरसता आ चुकी थी. काल चक्र घूमता रहा, हर साल अखंड दीपक जलता रहा. देखते ही देखते कब वो अधेड़, माँ-पिता वृद्ध और पुत्र युवावस्था में पहुँच गया, पता ही नहीं चला. पिता का काम भी छूट गया था. अब घर के कार्य और खर्च की सारी जवाबदारियाँ दमयंती के ऊपर आ गई थीं. मगर वो हिम्मत के साथ डटी रही. अजीत को स्कूली पढ़ाई पूर्ण होते ही शहर के कालेज में छात्रवृत्ति के साथ प्रवेश मिल गया. शहर में वो छात्रावास में रहने लगा और खाली समय में स्कूल के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाकर अपने खर्च का भार अपने ऊपर ले लिया. आखिर ३-४ वर्ष कालेज की पढाई और प्रतियोगी परीक्षाओं से जूझने के बाद उसे उसी शहर में एक अच्छी कंपनी में जॉब भी मिल गया.

इधर गाँव में दमयंती के माँ-पिता एक एक करके उसका साथ छोड़ गए. इतनी कम उम्र और नितांत अकेली दमयंती को अब जीवन पहाड़ सा लगने लगा. अजीत ने घर बेचकर माँ को शहर चलने के लिए कहा मगर वो घर बेचना नहीं चाहती थी. माँ-पिता की एक ही निशानी थी फिर जहाँ वो जन्मी और पली बढ़ी, उस गाँव की गंध को हमेशा के लिए कैसे भुला देती…अजीत से कहा-

“मेरे सगे सम्बन्धी ये गाँव वाले ही हैं बेटे, नौकरी छोड़कर मैं शहर में अकेली कैसे रह सकूंगी? फिर मैं गाँव से भी नाता बनाए रखना चाहती हूँ, इसलिए यह घर मैं नहीं बेच सकती. मैं चाहती हूँ तुम्हारा विवाह इसी घर में हो जाए…

अजीत ने होश सँभालते ही माँ को संघर्षरत ही देखा था, वो उसकी बात कैसे टालता…मगर वो शादी कालेज में अपने साथ पढ़ने वाली अपनी पसंद की लड़की से करना चाहता था. लड़की के माँ-पिता को तो रिश्ता मंज़ूर था, बस दमयंती को ही देखकर अपनी सहमति की मोहर लगानी थी. दमयंती ने ख़ुशी ख़ुशी बेटे की मुराद पूरी की और अक्षिता बहू बनकर घर में आ गई. कुछ दिनों बाद अपने मन पर मन भर भारी पत्थर रखकर दमयंती उस जीर्ण शीर्ण छोटे से घर को ताला लगाकर आते रहने का वादा करके बेटे-बहू के साथ शहर के लिए विदा हुई.

गाँव और नौकरी तो छूट ही गए थे, शहर की जलवायु भी उसे रास नहीं आई. यहाँ आने के तीन चार महीनों बाद ही उसे जोड़ों के दर्द ने घेर लिया. इलाज और दवाओं के बावजूद उसे कोई लाभ नहीं हुआ बल्कि मर्ज बढ़ता ही गया और धीरे-धीरे उसे पंगु बना कर बिस्तर के हवाले कर दिया. दिनों-दिन वो कमज़ोर होती चली गई. इतनी कम उम्र में ही वो बूढ़ी दिखने लगी थी. जीने का सारा उत्साह जाता रहा और मन ही मन ज़िन्दगी से मुक्त होने की प्रार्थना करने लगी थी.

अक्षिता सुन्दर होने के साथ ही सुशील और संस्कारी थी. उसने घर की सारी जिम्मेदारियाँ अपने ऊपर ले लीं, वो दमयंती को किसी तरह की शिकायत का मौका नहीं देती थी. दीवाली में कुछ दिन ही शेष थे, दमयंती इस बार अखंड दीपक की जवाबदारी बहू को सौंपना चाहती थी.

घंटों सुधियों के सागर में गोते लगाती हुई दमयंती आखिर भँवर से बाहर निकल आई, उसे इस समय किसी हमदर्द की ज़रूरत महसूस होने लगी जिसके सामने अपना दर्द बयां करके अपने दिल का बोझ हल्का कर सके. उसने अक्षिता को बुलाया और पास बिठाकर अपनी बीती हुई सारी दास्तान और अखंड दीपक की महिमा सुनाकर प्यार से बोली-

“देखो बेटी, आज हमारे पास जो कुछ भी है, माँ लक्ष्मी की कृपा का फल है. दीवाली में एक सप्ताह ही बाकी है. पूजन के लिए आवश्यक सामान की सूची बना लो, फिर अजीत के साथ धनतेरस पर बाजार जाकर सब सामान ले आना. इस बार दीवाली के दिन तुम्हें ही अखंड दीपक जलाना है. पूजा के समय माँ लक्ष्मी के आगे मन्नत मानकर तुम जो भी इच्छा करोगी, लक्ष्मी मैया अवश्य पूरी करेगी”

दमयंती ने प्यार से अक्षिता के सर पर हाथ फेरते हुए कहा-

“जी माँ जी, आप निश्चिन्त रहिये” अक्षिता ने नम्रता से उत्तर दिया.

दीवाली के दिन सास के निर्देशानुसार अक्षिता ने पूजा की सारी तैयारियाँ कर लीं. विधि-विधान के साथ शुद्ध घी का अखंड दीपक जलाया लेकिन पूजा के समय उसके मन में अचानक पाप पनपने लगा. दमयंती की सरलता और भोलापन उसके पाप के परदे के पीछे दब गए. वो भला सास की तीमारदारी कब तक करती रहेगी, अब तो उनको उम्र भर झेलना होगा. और सुसंस्कारों पर स्वार्थ हावी हो गया. उसने नतमस्तक हो माँ लक्ष्मी के आगे मन्नत मानकर इच्छा प्रगट की-

“हे माँ! अगर मुझे किसी तरह अपनी सास से छुटकारा दिला दो तो अगले साल तुम्हारी सोने की प्रतिमा बनवाकर पूजन करूँगी.”

फिर उसने उठकर सास के पाँव छुए और इच्छा पूरी होने का आशीर्वाद लिया. सास ने प्यार से समझाया-

“देखो बहू, अब तुम्हें इस बात का विशेष ध्यान रखना होगा कि यह दीपक ३ दिन तक लगातार चौबीसों घंटे जलता रहे, अगर बीच में ही ज्योति बुझ गई तो इच्छा पूरी होने में व्यवधान आ सकता है.”

“जी माँजी, आप चिंता न करें, मैं पूरा ध्यान रखूँगी” मुस्कुराते हुए अक्षिता ने कहा.

अब अक्षिता का पूरा ध्यान दीपक पर ही केन्द्रित था. रात को बार-बार उठकर बाती ठीक करके घी डालती रही. अगले दिन सुबह उठकर स्नान पूजन के बाद वो जैसे ही रसोई में गई तो अचानक उसका जी मिचलाने लगा और उल्टी होने लगी. अनुभवी सास ने देखा तो तुरंत मामला ताड़ लिया. अपनी बीमारी और कमज़ोरी भूलकर उसके पास जाकर पीठ सहलाते हुए बोली-

“देखो बहू, माँ लक्ष्मी ने तुम्हारी मनोकामना पूरी होने का शुभ संकेत दे ही दिया. तुमने अवश्य अपनी गोद हरी होने का वर माँगा होगा…मैंने भी तो मन ही मन यही माँगा था… अब तुम्हें इधर उधर डोलने की कोई आवश्यकता नहीं…मैं सब संभाल लूँगी.”

सुनकर अक्षिता हैरानी से सास को देखने लगी. कहाँ तो उसने सास से मुक्त होने के लिए दुर्भावों का जाल बुनना शुरू किया और कहाँ वे बीमार होते हुए भी…उफ़! उसे स्वयं पर ही ग्लानि होने लगी. यह उसने देवी से क्या माँग लिया… अब वो क्या करे, उसके संस्कार इतने गिरे हुए तो नहीं थे…फिर यह सब कैसे हो गया? असमंजस में डूबी बिस्तर पर जाकर लेट गई. इतने में पतिदेव भी उठ गए. उनको मरी हुई आवाज़ में समाचार सुनाया तो ख़ुशी के मारे उसने अक्षिता को बाँहों में भर लिया. लेकिन उसे गुमसुम देखकर पूछा-

“क्या बात है जान, क्या तुम्हें माँ बनने की ख़ुशी नहीं है?”

“अरे, ख़ुशी क्यों नहीं होगी, बस ज़रा जी मिचला रहा है.”

“चिता मत करो, माँ बहुत अनुभवी हैं, सब संभाल लेंगी. तुम अपने आराम पर पूरा ध्यान देना.”

“मुझे अपनी नहीं, माँ जी की ही चिंता है अजीत… वे अस्वस्थ हैं और उनके ऊपर अब मेरी जवाबदारी भी आ जाएगी…मेरे लिए, अपने आने वाले वंशज के लिए उन्हें स्वस्थ होना ही पड़ेगा…आप उनका नियमित चेकअप करवाते रहिये, हमें उनके सुखद-साए की सख्त आवश्यकता है.”

“ठीक ही कहती हो… अब इस मामले में लापरवाही बिलकुल नहीं होनी चाहिए. आज ही उन्हें डॉक्टर के पास ले जाऊँगा. अब ज़रा चाय तो पिला दो.”

अक्षिता को किचन की ओर जाते देखकर दमयंती ने उसे आराम करने को कहा और स्वयं चाय बनाने लगी. अक्षिता का मन जोर जोर से रोने का हो रहा था लेकिन स्वयं पर काबू रखे हुए थी. पति के दफ्तर जाते ही वो निढाल होकर पलंग पर पसर गई. उसका पूरा ध्यान कमरे और किचन के बीच में बने छोटे से पूजाघर पर था जहाँ अखंड दीपक जल रहा था. उसने कमरे का पर्दा कुछ सरका दिया, अब पूजाघर साफ नज़र आ रहा था. उसने देखा कि माँ जी ने नहाकर धीरे-धीरे पूजा घर की सफाई करके दीपक की बाती ऊपर सरकाई और घी भी डाल दिया. अगरबत्ती लगाकर कुछ देर ध्यान किया फिर रसोई में चली गई.

आज महरी से सारे काम माँ जी ने करवाए और खाना भी खुद बनाया. बीच बीच में अक्षिता का हालचाल पूछकर हिदायतें देती रही.

किसी तरह दिन बीता, रात हुई, माँ जी ने दीपक की देखरेख की जवाबदारी भी अपने ऊपर लेकर उसे पूरा आराम करने को कहा था…पतिदेव गहरी नींद में सो चुके थे. पर अक्षिता की आँखों से नींद गायब थी. वो बार बार उठकर पूजाघर में जलते हुए दीपक की ओर देखती और लक्ष्मी माँ से अपनी माँग को अस्वीकार करने की प्रार्थना करती रही. अन्धविश्वासी तो वो नहीं थी पर सास के अति विश्वास को भी नज़रंदाज़ कैसे करे. अगर माँगी हुई मुराद पूरी हो गई तो??…क्या खुद को कभी माफ़ कर सकेगी? घोर अनर्थ की यही चिंता उसे चैन नहीं लेने दे रही थी.

सोचते-सोचते कब आँख लग गई उसे पता ही नहीं चला. तड़के आँख खुली तो वो पति को नींद में देखकर कमरे से बाहर ही टहलने लगी. पूजाघर, जलता हुआ दीपक देखते-देखते अचानक उसके कानों में सास के कहे हुए शब्द गूँज उठे-

“देखो बहू अब यह दीपक तीन दिन तक अखंड जलते रहना चाहिए वरना इच्छा पूरी होने में व्यवधान आ सकता है.”

“अगर यह दीपक ही बुझा दूँ तो?? सास का कहना सच भी हो सकता है. यानी मेरी मन्नत अधूरी रह जाएगी. सासू माँ को तो किसी तरह समझा दूँगी मगर यह दीपक अखंड जलता रहा तो मेरी आत्मज्योति खंड-खंड हो जाएगी और इस दीप-शिखा की आँच में मैं आजीवन झुलसती रहूँगी. अतः मन्नत अधूरी रहने में ही सबकी भलाई है.” मन ही मन अक्षिता ने सोचा.

उसने सासू-माँ कमरे में झाँका तो वे सो रही थीं शायद झपकी लग गई होगी. उसने दबे पाँव पूजाघर में जाकर माँ लक्ष्मी से माफ़ी माँगते हुए फूँक मारकर दीपक बुझा दिया और अपने मन से मनों बोझ उतारकर कमरे में आकर चुपचाप आँखें बंद करके लेट गई.

-कल्पना रामानी

*कल्पना रामानी

परिचय- नाम-कल्पना रामानी जन्म तिथि-६ जून १९५१ जन्म-स्थान उज्जैन (मध्य प्रदेश) वर्तमान निवास-नवी मुंबई शिक्षा-हाई स्कूल आत्म कथ्य- औपचारिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद मेरे साहित्य प्रेम ने निरंतर पढ़ते रहने के अभ्यास में रखा। परिवार की देखभाल के व्यस्त समय से मुक्ति पाकर मेरा साहित्य प्रेम लेखन की ओर मुड़ा और कंप्यूटर से जुड़ने के बाद मेरी काव्य कला को देश विदेश में पहचान और सराहना मिली । मेरी गीत, गजल, दोहे कुण्डलिया आदि छंद-रचनाओं में विशेष रुचि है और रचनाएँ पत्र पत्रिकाओं और अंतर्जाल पर प्रकाशित होती रहती हैं। वर्तमान में वेब की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘अभिव्यक्ति-अनुभूति’ की उप संपादक। प्रकाशित कृतियाँ- नवगीत संग्रह “हौसलों के पंख”।(पूर्णिमा जी द्वारा नवांकुर पुरस्कार व सम्मान प्राप्त) एक गज़ल तथा गीत-नवगीत संग्रह प्रकाशनाधीन। ईमेल- [email protected]