गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल – अपने पे गुमां करती है

रात बेवजह ही अपने पे गुमां करती है।
हर एक शय इसके दामन में निहाँ करती है।।

रास्तों को तकते रहने से कुछ नहीं हासिल।
राह सूनी हो तो, सूनी ही रहा करती है।।

न रोकिये, कि इंतज़ार अभी बाक़ी है।
इन आंसुओं के ज़रिए नींद बहा करती है।।

लफ्ज़, लहज़ा ज़रा तहज़ीब काबू में रखना।
यही सब तेरी परवरिश को बयां करतीं हैं।।

यकीं करोगे तुम एक रोज़, आज मत मानो।
मुस्कुराहट ही असली दर्द अयां करतीं हैं।

यूँ हुई सारे रकीबों की बददुआ बेबस।
है अभी माँ, जो जीतने की दुआ करती है।

*डॉ. मीनाक्षी शर्मा

सहायक अध्यापिका जन्म तिथि- 11/07/1975 साहिबाबाद ग़ाज़ियाबाद फोन नं -9716006178 विधा- कविता,गीत, ग़ज़लें, बाल कथा, लघुकथा