मरहम
अभी-अभी सौरभ के पिताजी का मैसेज आया था-
”घाव तो हर कोई दे सकता है,
‘मरहम’ बन पाओ तो जानें.”
‘मरहम’ शब्द ने सौरभ के दिल में हलचल मचा दी थी. अपने नाम के विपरीत सबको घाव ही तो देता था न सौरभ! कभी वे घाव वाग्बाणों के होते थे तो कभी कूंची-कलम के. तलवारों के घाव तो फिर भी भर जाते हैं, लेकिन वाग्बाणों और कूंची-कलम के घाव तो कभी भरते ही नहीं, यह वह जानता तो अच्छी तरह था, पर मानता नहीं था. जाने क्यों उसे सभी में खोट नजर आने लगी थी.
विधाता की कृति में भी तो उसने खोट निकाली थी न! पड़ोस वाले घर में उनके शारीरिक और बौद्धिक विकलांगता के साथ-साथ ठीक से बोलने में भी परेशान होने वाले बेटे के बारे में जाने क्या-क्या कहा था! अब उसे सोचने में भी शर्म आती है.
”उस बच्चे का ‘मरहम’ बना जा सकता है? यदि हां, तो कैसे?” उसने अपने आप से ही प्रश्न पूछा था.
जवाब ‘हां’ में मिला था, शायद उसके अपने मन की विकलांगता ठीक हो गई थी.
नकारात्मकता का नकाब उतारकर वह उस बच्चे का ‘मरहम’ बनने का सुदृढ़ निर्णय लेकर चल पड़ा था.
बिगड़े बोलों से किसी को घायल न करना, दुःखी का मरहम बनना इंसानियत है. एक बार मन में मरहम बनने का संकल्प आए, तो उस संकल्प को पूरा करना कोई मुश्किल नहीं है. बच्चे को प्रैम गाड़ी में ठंडी-खुली हवा में घुमाया जा सकता है, उसे बहलाया जा सकता है, अपने पुराने खिलौनों को उसे खेलए को दिया जा सकता है. कहने का तात्पर्य है प्रेम-प्रेम-प्रेम. बिहार में चमकी बुखार से बच्चे काल-कवलित हो रहे हैं, पर मंत्री-मुख्य मंत्री बिगड़े बोलों से बाज नहीं आ रहे, इसलिए लोगों में रोष पैदा हो रहा है. इस समय उन्हें आवश्यकता है मरहम की, प्रेम की, आर्थिक सहायता की, वह उनको मिलनी ही चाहिए.