लघुकथा – विडंबना (बुढापे का दर्द)
रीना नई बहू की जिद्द पर अपने परिवार के साथ मायके मिलने चली आई | सबसे आगे भागती सी डैडी से लिपट गई, “डैडी! आप ठीक तो हो ना, खाना नौकर ठीक से बनाता है, धोबिन कपड़े ठीक समय पर धोकर दे जाती होगी| डैडी, आपने खाना खाया या मैं बना दूँ?” डैडी बोले, “ओह, तू तो खामखा परेशान होते रहती है| मुझे कोई भी फ़िक्र नहीं, तुम सबको देख मन खुश हो जाता है|” रीना रसोई में चाय बनाने चली गई और सारे घर को देख उदासी में घिर गई| पुरानी यादें थीं की एक आती एक जाती| अपनी माँ भाइयों के साथ फोटों देखते डैडी के पास उछलती मचलती घटना याद करवाती हँसती रही| बाप बेटी खूब हंसते पर रीना को अपने पिता की हँसी क्यों बनावटी लगती उसको समझ नहीं आ रहा था| बात भी सही थी| भरा-पूरा परिवार माँ के साथ छोड़ जाने बाद पिता अकेले हो गये थे| दिन तो डैडी नौकरों के सहारे से काम और बातों में गुजार लेते थे लेकिन रात को नौकर भी चले जाते थे| डैडी अकेलेपन से तो बहुत घबराते थे| उनका समय हमारे साथ बहुत बढ़िया बीता, फिर वापसी समय सब उनके चरण छु चलने लगे| डैडी बहुत उदास हो गये और मुझे अपनी बाहों में भर दहाडें मार रोने लगे| “मुझें कुछ समझ नहीं आ रहा अब मैं क्या करूँ!” फिर बोली, “डैडी, आप हमारे साथ चलो, हम आपकी खूब सेवा करेंगे|” डैडी खामोश से बोले, “हालात और समय साथ न हो तो कुछ भी बदल नहीं सकता|” अगली सुवह दस वज़े पड़ोसी का फोन भाई को आया, “दोपहर हो गई अंदर से दरवाजा नहीं खुला|” हमेशा के लिये अकेलेपन के दर्द को सहते सबको तन्हा छोड़ गये| यही विडंबना खाली शब्द डैडी का घर रह गया|
— रेखा मोहन