“होती है बरसात”
होती है बरसात की, धूप बहुत विकराल।
स्वेद पोंछते-पोंछते, गीला हुआ रुमाल।।
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धूप-छाँव हैं खेलते, आँखमिचौली खेल।
सूरज-बादल का हुआ, नभ में अनुपम मेल।।
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चौमासे में हो रहे, जगह-जगह सत्संग।
सब के मन को मोहते, इन्द्र धनुष के रंग।।
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एला और लवंग के, बहुत निराले ढंग।
लहराती आकाश में, उड़ती हुई पतंग।।
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पानी से लवरेज हैं, झील और तालाब।
उपवन में हंसने लगे, गेंदा और गुलाब।।
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बादल फटें पहाड़ पर, प्रलय भरे हुंकार।
प्राण बचाने के लिए, मचती चीख-पुकार।।
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फटते जब ज्वालामुखी, आते हैं भूचाल।
जीव-जन्तुओं पर तभी, मँडराता है काल।।
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(डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)