वो घर से स्कूल
स्कूल से घर दौड़ता बचपन
पंतग की डोर सा
मित्रों से लिपटा बचपन
अपना टिफिन भूलकर
दूसरे के टिफिन में झांकता बचपन
पीछे की बैंच पर बैठकर
टीचर की शक्ल बनाता बचपन।
टीचर की डांट से घबराकर
नित नये बहाने बनाता बचपन
एक छोटी सी पेंसिल पर
सर्वस्व लुटाता बचपन
घर में आते ही बस्ता फेंककर
सड़क पर खेलता बचपन
पिता के डांटने पर
माँ के आंचल में छिपता बचपन।
गली मोहल्ले की धूल से
श्रृंगार करता बचपन
पक्षियों सा पेड़ों पर चढ़कर
डाल पर बैठ इठलाता बचपन
बारिश के पानी में
हिरण सा कुलाचें मारता बचपन
मुट्ठी भर चने को
बांट कर खाता बचपन
गर्मियों की छुट्टियों में
नानी के खेतों में
हरियाली संग बतियाता बचपन
तालाब में नहाता
कीचड़ में लोट पोट होता बचपन
मकई के खेतों में घुसकर
भुट्टे चुराता बचपन
याद आते ही गृहकार्य की
बहाने खोजता रूआंसा बचपन।
न भेद जाति-धर्म का
न भेद काले-गोरे का
न भेद कद- काठी का
न भेद धनी-निर्धन का
न जाने कहाँ खो गया वो
अरबों खरबों का बचपन
अरे कोई लौटा दे
निष्पाप, निष्कपट, निश्चल
भोला सा बचपन।
— निशा नंदिनी भारतीय