उ0प्र0 की राजनीति में मायावती का करबट बदलना
भारतीय राजनीति में कदम रखने के बाद पहली बार जब 2014 में बहिन मायावती का हाथी शून्य पर आ गया तो बसपा के रणनीतिकारों की ही नहीं देश के बड़े बड़े राजनीतिक पण्डितों मीडिया के विश्लेषकों को चौंका दिया।चुनाव पूर्व के और बाद के अनुमान धरे के धरे रह गये।स्वंय मायावती जी को ऐसा अनुमान नहीं था पर क्या किया जाये भारत में कार्यरत केन्द्र सरकार की छवि बहुत खराब हो चुकी थी अनेक घोटालों के साथ साथ भ्रष्टाचार महत्वपूर्ण मुद्दा बन रहा था इस सबसे बाहर निकलने के लिए जनता को मोदी जी के रूप में एक ऐसा व्यक्तित्व मिल रहा था जिस पर विश्वास किया जा सकता था।दूसरी ओर मायावती जी पिछले पांच सालों से राज्य की सत्ता से बाहर थी राज्य में अधिकांश कार्य जो उन्होंने आरम्भ किये थे उन पर उंगली उठ चुकी थी प्राथमिक शिक्षा के लिए या अन्य भर्तियां अदालतों में लम्बित हो गयी थीं।ऊपर से जनता के पास केन्द्र में इनकी भूमिका को लेकर पहले का अनुभव था।वह क्षेत्र वर्ग और जाति से उठकर देश को सरकार देने का मन बना चुकी थी।इसलिए परिणाम सबको चौंका गया। इस चुनाव से क्षेत्र जाति और वंश की राजनीति करने वालों का पतन आरम्भ हो गया।साथ ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के रूप में एक आत्मविश्वास से भरा सबका साथ सबका विकास करने वाला व्यक्तित्व मिल गया।
उत्तर प्रदेश की राजनीति में बहिन मायावती का अपना स्थान है।वर्तमान में वह बहुजन समाजपार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्षा हैं।राजनीति में प्रवेश से अब तक बहुजन समाज के हित की बात करती रही हैं।बाबा साहब के सपनों को साकार करने वाला वतलाती हैं।चार बार प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं।सपा हो या भाजपा दोनों के साथ इन्होंने राज्य में सरकार बनायी है।यह सन् 1977 में काशीराम जी के सम्पर्क में आयीं और पूर्णकालिक राजनीतिज्ञ बनने का फैसला लिया।1984 में जब बसपा की स्थापना हुई यह उसके साथ थीं।पहली बार यह 1989 बिजनौर लोकसभा सुरक्षित सीट से संसद में पहुंची।यह वह समय था जब एन.डी.तिवारी राममन्दिर का शिलान्यास कर चुके थे।कांग्रेस का अन्यपिछड़ा वर्ग मुस्लिम व अनुसूचित और अनुसूचित जनजाति का मतदाता विकल्प तलाशने लगा था।उसे लोहिया वादी मुलायमसिंह और दलितों के उत्थान की बात करने वाली मायावती में उम्मीद की किरण दिखायी दी।परिणामतः जैसे ही उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव हुए मुलायम सिंह और मायावती काफी मजबूत होकर उभरें उधर कांग्रेस उतनी ही कमजोर हो गयी जो आजतक संभल न पायी है।अपनी राजनीतिक पकड़ और सपा के सहयोग से बसपा ने पहला दलित वह भी महिला मुख्यमंत्री 1995 में दिया।पर यह प्रयोग अधिक सफल न हुआ उसके बाद 1997 2002 व 2007 में यह मुख्यमंत्री बनीं।2007 का कार्यकाल इनका पूर्णकालिक था।06 मार्च 2012 तक इस पद रहीं।इसमें इनको समाज के लगभग हर वर्ग का समर्थन मिला था पर समर्थन का भरोसा बना न पायीं और 2012 में नये पूर्णकालिक अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बनें।उसके बाद 2014 में लोकसभा और 2017 में विधानसभा चुनावों 1989 से चले आ रहे समीकरण ध्वस्त हो गये।राजनीति में सपा बसपा या लोकदल शिखर से शून्य की ओर जाते दिखे।कैराना फूलपुर गोरखपुर के उपचुनावों में कुछ लोगों को लगा कि 1989 का दौर वापस आ सकता है पर 2019 के लोकसभा चुनाव परिणाम फिर 2014 से बड़ा इतिहास दोहरा गये और साइकिल हाथी के भार के कारण 2014 जैसा भार भी न उठा सकी।नल पूरा उखड़ा हाथ एक उंगली पर रह गया।
परिवार में छ भाई और दो बहनें मायावती अिंहंसा के लिए जाने जाने वाले धर्म बौद्ध की अनुयायी सामाजिक कार्यकर्ता होने के साथ साथ अपनी राजनीति में रणनीति के लिए बारीक नजर रखने वालों में से एक हैं।वह समय के साथ अपनी नीति और नीयत को सफल करने के लिए अपने सिपाह सलाहकार तो बदलती ही हैं अनुशासन के लिए निर्णय कठोर से कठोर लेने में भी नहीं हिचकतीं।कई बार उनको केन्द्र की राजनीति के बड़े बड़े धुरन्धर समझने की भूल कर बैठे।हर चुनाव में कांग्रेस से दूरी उनकी रणनीति का हिस्सा थीं वह इस बात को अच्छी तरह समझती हैं कि उनका अधिकांश समर्थक जब कांग्रेस के साथ था तो उत्तर प्रदेश में कांगेस नम्बर एक थी।लोकदल अब जमीन पर कुछ खास है नहीं पर सपा का अपना वोट बैंक था जिससे अपनी शर्तों पर तालमेल पर बसपा प्रमुख शून्य से दहाई पर आ गयीं। दूसरी ओर सपा अपने कुनबे की ही तीन सीटें गवां बैठी।यह सब मुलायमसिंह आजम खां जैसे कद्दावर नेता समझ रहे थे पर नये नये भतीजे अखिलेश जी समझ न पाये।अब जब गठबन्धन से अलग रहकर बहिन जी ने उपचुनाव लड़ने की घोषणा कर दी है तो समझ लेना चाहिए कि यह भी कोई चौंकाने वाला परिणाम नहीं हैं।अपितु अपने अनुभव राजनीतिक कौशल के अनुसार उपचुनाव के साथ साथ विधानसभा चुनाव के लिए तैयारी की करबट है।जिसका वर्तमान परिस्थिति में सबसे बड़ा प्रभाव सपा पर ही पड़ता दिख रहा है उसके बाद कांग्रेस और लोकदल की जमीन खिसकेगी।भाजपा ने जिस तरह से मोदी और अमितशाह के आने के बाद अपनी राजनीति की दिशा बदली हैं।सबका साथ सबका विकास की बात की है उससे नहीं लगता कि उसका कुछ अधिक नुकसान होगा।
पर एक सामान्य डाककर्मी की बेटी दलित परिवार में जन्मीं जें. जे. कालोनी दिल्ली के एक निजी स्कूल में शिक्षण से अपना कैरियर आरम्भ करने वाली भारतीय प्रशासनिक सेवा के सपने देखने वाली बीएड वकालत जैसी डिग्रियों से सम्पन्न राजनीति उसमें भी उत्तर प्रदेश में कग क्या चौंकाने वाला कर दे कुछ कहां नहीं जा सकता है।जब इन्होंने राजनीति में क ख ग शुरू किया है।अपने दमखम से जाति वर्गों में बनते बिगड़ते समाकरणों और नारों से अच्छे अच्छों को चौकाया है।अब क्या होगा यह भविष्य ही बतायेगा।फिलहाल तो यही कहूंगा कि अब देश प्रदेश में बदलाव व जनता के विश्वास के अनुसार राजनीति को करने की आवश्यकता है।