यहाँ न तिनके जोड़ परिंदे अपना नीड़ बनाने को |
तेरे श्रम से क्या लेना है इस बेदर्द जमाने को ||
पत्थर जैसी दुनिया है यह पत्थर जैसे लोगों की |
इनके आगे रोना मत तू अपना दर्द सुनाने को ||
बगुलों कि भरमार बहुत है हंसों कि इस टोली में |
देख कहीं न मछली बनना इनकी भूख मिटने को ||
बेबस लाचारों की खुशियाँ इनको कहां सुहाती हैं |
इन्हें चाहिए बेबस पीड़ा हंसने और हंसाने को ||
बेबस पंछी सच कहता हूँ इन्हें बहाने मत देना |
इन्हें चाहिए एक बहाना तेरा नीड़ जलाने को ||
बस्ती से कहीं दूर चला जा जंगल के किसी कोने में |
नीड़ बना ले रम जा फिर से दुनिया नई बनाने को ||
— अशोक दर्द