गीत – तुम बिन सावन आग लगाये
कैसे कहूं मुंह से कहा ना जाये
कि तुम बिन सावन आग लगाये ।
भीगा मौसम, भिगाये मन मेरा
ठंडी हवाएं सिहराये तन मेरा
बिजली तड़प कर मुझको डराये
कि तुम बिन सावन आग लगाये।
बागों में अब पड़ गये झूले
ओ जी पिया तुम कैसे ये भूले
सखियों का संग मन को ना भाये
कि तुम बिन सावन आग लगाये।
दिन बीते खाली, रात लगे काली
अंखियां दरस बिना बने सवाली
हंसना जो चाहूं तो दिल भर आये
कि तुम बिन सावन आग लगाये ।
बहुत हुआ अब लौट भी आओ
बिरहा की अग्नि अब ना जलाओ
बन परदेशी तुम बहुत कमाये
कि तुम बिन सावन आग लगाये।।
— साधना सिंह