गीत
आस-निरास की बदरी घिरकर
बहती है चुपचाप नयन में।
मन के आगे मनुज मौन है
विचरण करता है निर्जन में।।
रिश्तों का बाजार सजाया
लोभ मोह में मन भरमाया
स्वारथ के रिश्तों ने लूटा।
ईश सुमिर से नाता टूटा।।
सबने छुपकर घात किया है-
त्राहि त्राहि है अब जीवन मे।।
यूँ लगता है मन अनंत है
इक्षाओं का नही अंत है
अजर,अमर और अविनाशी है
मन मे ही समझो काशी है
मन का ही कहना मानो तो
सुखी रहोगे सब जीवन मे।।
मन है गोकुल,मन वृन्दावन
मन है राधा मन है मोहन
मन है वीणा मन है बँसी
मन है गोपी मन है ग्वालन
मन मोहन के चरणन रहता
और मोहन मेरे नयनन में।।
— शुभदा बाजपेई