खेल निराले तक़दीर के।
हंसते -हंसते पल में क्या हो जाता है।
जो रोता है कभी वो सब पा जाता है।
पल की खबर नहीं जहां में देखो तो;
फिर भी बरसों के लिए जोड़ा जाता है।
सब कुछ पाने की होड़ में अपनो को छोड़े;
रिश्तों को भूल फिर तन्हां खुद को पाता है।
यहां से शुरू हुआ था इक दिन सफ़र ;
आखिर वापिस वहीं लौट आ जाता है।
अंहकार में मानव फिर अपना धर्म भुला;
सच्चाई जान कर आखिर में पछताता है।
हैं खेल निराले तक़दीर के मगर क्या कहें;
जो समझे वो भव सागर से तर जाता है।
कामनी गुप्ता***
जम्मू !