गज़ल
तो क्या हुआ कि अब न तेरे खास रहे हैं
किसी वक्त तेरी आँखों की हम प्यास रहे हैं
इक बार जो गुनाह-ए-इशक कर लिया हमने
सारी उम्र ही फिर हम बद-हवास रहे हैं
तेरी हँसी से खिल उठे सीने में गुल कभी
तेरे अबरू की शिकन से हम उदास रहे हैं
तनहाई कितनी भी हो तेरी यादों के मगर
कुछ साए हमेशा ही आस-पास रहे हैं
रंगीं पैरहन की ज़रूरत है झूठ को
सच तो हमेशा से बे-लिबास रहे हैं
— भरत मल्होत्रा