तालाब या पोखर और मानव बनाम कथित आधुनिकता
तालाब या पोखर या पोखरा हम भारतीयों के बचपन के दिनों के स्मृति पटल पर अभी भी ऐसे अंकित हैं, जैसे वे हमारे जीवन के अभिन्न अंग हों। हम लोग बचपन में रात में पहली जोरदार मूसलाधार बारिश होने पर सुबह होने का बेसब्री से इंतजार करते थे, क्योंकि गाँवों में मई -जून की झुलसा देने वाली गर्मी के बाद गाँव स्थित सारे तालतलैया और गड्ढे आदि एक ही रात में जोरदार बाारिश में लबालब भर जाते थे, ठंडी-ठंडी, शीतल हवाएं दिलो-दिमाग को एक खुशनुमा माहौल में बदल देती थी, सुबह होने पर हल्की-फुल्की बारिश होते रहने के बावजूद भी हम बालकों की टोली घर के समीप पानी से भरी बउली (बावड़ी का अपभ्रंश व गड्ढे को पूरब में बउली भी कहा जाता है } लबालब पानी से भर जाती थी, जिसमें पीले-पीले बड़े-बड़े मेढक अपने टर्र-टों-टर्र -टों की लगातार आवाज से उस खुशनुमा माहौल को और भी अधिक आह्लादित कर रहे होते थे, गाँव की ही पालतू दुधारू भैंसें झुलसती गर्मी के बाद उस ठंडे जल में अपने तन को शीतल करती हुई और जुगाली करती हुई आराम से बैठी या इधर उधर तैर रही होतीं थीं।
ये तालाब लगभग साल भर (जून के आखिरी दिनों में भयंकर गर्मी के दिनों को छोड़कर } जल से लबालब भरे ही रहते थे, जिसके जल का उपयोग गाँव के लोग अपने मवेशियों को नहलाने, उनकी प्यास बुझाने और अपने चारे को साफ करने व घरेलू उपयोग के लिए भी घड़े में भर कर घर ले जाकर औरतें उन्हें घरेलू काम में उपयोग करतीं थीं। इस प्रकार गड्ढे या तालाब का पानी गाँव के लोगों और पशु-पक्षी जगत के जीवन के लिए एक आवश्यक अभिन्न हिस्सा था। इन ताल-तलैयों से सबसे बड़ी फायदे की बात यह होती थी कि भूगर्भीय जल से पृथ्वी साल भर के लिए संतृप्त हो जाती थी, मैंने अपने बचपन में अपनी आँखों से देखा है कि कई दिन के मूसलाधार बारिश के बाद जिस कुँएं से पानी निकालने के लिए पहले बीस-पच्चीस फुट की डोर (कुँएं से पानी खींचने वाली मोटी रस्सी }से पानी निकालना पड़ता था, वे कुँएं ऊपर तक जिसे हाथ से छू सकते थे, पानी से लबालब भर जाते थे, वे कुँएं बाद में पूरे साल तक पूरे मुहल्ले या गाँव की प्यास बुझाने, स्नान करने और अन्य सभी काम के लिए निरंतर पानी उपलब्ध कराने में सक्षम होते थे।
अब हम आधुनिक हो चले हैं, शहरों की बात छोड़िए गाँवों में भी भूमॉफियाओं द्वारा उन गड्ढों और बावड़ियों को कब्जा करके उसको मिट्टी से पाटकर उस पर कथित मॉडर्न पब्लिक स्कूल या कुछ और खोल लिए हैं, गाँवों में भी पम्पिंग सेट लगाकर उसके पानी को आरओ से शुद्ध करके या बोतलबंद पानी खरीद कर लोग पीने को बाध्य हैं, क्योंकि अधिकतर तालतलैयों, गड्ढों और पोखरों के अस्तित्व को मिटा देने से गाँवों में भी पानी पहले की तरह साल भर इकट्ठा नहीं रहता, जिससे जल की धरती में जाने की दर बहुत कम होती जा रही है, गाँवों की भी भूगर्भीय जल की स्थिति लगातार खराब होती जा रही है, फलस्वरूप कुँए और हैंडपंप भी सूख गये हैं।
आधुनिक भारतीय शहरों की स्थिति तो और भी दयनीय है, यहाँ धरती के चप्पे-चप्पे को या तो डामर की सड़क से या कंक्रीट की मोटी चादर से ढक दी गई है, जिससे वर्षा के पानी को धरती में समाने (जाने का } रास्ता (रिचार्जिंग } का कोई विकल्प ही नहीं है, सिवा यूँ ही व्यर्थ में नालों में बह जाने के। इसके विपरीत जलमॉफिया लगभग हर पच्चीस कदम की दूरी पर चौबीसों घंटे धरती के हजारों साल से संचित अमूल्य भूगर्भीय जल को पंपिंग सेटों से खींचकर उसे आर.ओ. से शुद्ध करके बोतलों में भरकर दिन-रात बेचने में लगे हैं, इस अनधिकृत कार्य को रोकने का काम न नगर निगम, न पुलिस, न प्रशासन कोई भी नहीं कर रहा है, फलस्वरूप भूगर्भीय जल भण्डार तेजी से खतम हो रहा है। शिमला और चेन्नई जैसे शहरों में पानी के लिए त्राहि-त्राहि मची हुई है, कमोबेश हर शहरों की स्थिति है ऐसी ही है या कुछ ही सालों में हो जायेगी। ईजरायल जैसे देश में हमारे यहाँ से मात्र 2 प्रतिशत बारिश होती है, वे लोग उसका एक-एक बूँद सहेजकर उसी से अपनी कृषि और सभी कार्य कुशलतापूर्वक करते हैं, वहाँ कभी भी गर्मियों में पानी के लिए हाहाकार नहीं मचता, आखिर हम अच्छी बातों को क्यों नहीं सीखते हैं ?
हम कई मामलों में सभ्य होते जा रहे हैं परन्तु दुर्भाग्यवश हम अपने पूर्वज लोगों से जलसंचयन के मामले में निश्चित रूप से असभ्य, गँवार और मूर्ख हो गये हैं, क्योंकि जल एक ऐसी प्रकृति प्रदत्त उपहार है, जिसे हम प्रयोगशाला में नहीं बना सकते !, अगर हम उसका इसी प्रकार असीमित दोहन, अपव्यय और उचित संचयन नहीं करेंगे तो वह दिन दूर नहीं जब इस देश में हर जगह राशन की दुकानों पर पानी की एक-एक बूँद की आपूर्ति करनी पड़ सकती है ! इसलिए हम कथित सभ्य मानवों को 1947 के भारत की तरह 24 लाख तालाबों, ताल-तलैयों, पोखरों को बनाना (पुनर्जीवित } करना ही पड़ेगा जो उस समय की लगभग 35 करोड़ की आबादी तक को पानी की आवश्यकताओं की बखूबी पूर्ति कर देते थे। निश्चित रूप से आज के हम कथित आधुनिक मानव प्रजाति के पास, इसके अतिरिक्त जलसंचयन का और कोई विकल्प भी नहीं बचा है !
— निर्मल कुमार शर्मा, गाजियाबाद