ग़ज़ल
मेरी कहानी को कोई अंजाम मिल न पाया
तूने भेजा था जो मुझको वो पैगाम मिल न पाया
मिला तो बहुत कुछ है लेकिन ये लग रहा है
हकदार था मैं जिसका वो ईनाम मिल न पाया
झूठ बिका झट से मुँह मांगी कीमतों पर
सच को पर यहाँ पे सही दाम मिल न पाया
तीर-ए-नज़र का तेरी बन गया जो निशाना
फिर ज़िंदगी भर उसको आराम मिल न पाया
रातों को ख्वाब में जो आता है चोरी-चोरी
मुझे दिन की रोशनी में सरेआम मिल न पाया
— भरत मल्होत्रा