कातिलों के शहर में
मुमकिन सज़ा-ए-मौत या वजह खुदखुशी मिले।
कातिलों के शहर में, अब कैसे ज़िन्दगी मिले।।
किस्मत की बात यार है, जो मिले कबूल कर।
क्यों फिरे यहाँ वहाँ कैसे ही एक खुशी मिले।।
हर शय नसीब है, न हो इस बात का गुमान भी।
दरिया के बीच भी, है मुमकिन कि तिश्नगी मिले।।
तारों के नूर पर भी नज़र रखना लाज़िमी हुआ।
हर बार होता है कहाँ की पूरा चाँद ही मिले।।
लगाम दिल की चाहतों पे ढीली इस कदर हुई।
ज़र्रे की भी ख्वाहिश यही, आफताब ही मिले।।
हर ओर धुंध और धुंआ फैला हुआ है दूर तक।
कोई कैसे साँस ले ‘लहर’, कैसे रोशनी मिले।।
Wahhhh