दोहे “उत्तर अब माकूल”
पत्तों को सब सींचते, नहीं सींचते मूल।
नवयुग में होने लगीं, बातें ऊल-जुलूल।।
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सबके अपने ढंग हैं, अपने नियम-उसूल।
अब आदर-सत्कार को, लोग गये हैं भूल।।
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चौमासे में उड़ रही, सड़कों पर अब धूल।
वीराना लगता चमन, मुरझाये हैं फूल।।
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तू-तू मैं-मैं को यहाँ, लोग दे रहे तूल।
आपाधापी में हुए, सब कितने मशगूल।।
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जो कल तक अनुकूल थे, आज हुए प्रतिकूल।
अहसानों के दाम को, दाता रहे वसूल।।
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नदियाँ-सागर स्वयं के, काट रहे हैं कूल।
पनप रहे हैं खेत में, खरपतवार-बबूल।।
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नष्ट हो रहे धरा से, पौधे-पेड़ समूल।
मिलते नहीं सवाल के, उत्तर अब माकूल।।
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(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)