राही
वह फूलों के मेले देखता-गाता-गुनगुनाता चला जा रहा था और झमेले को भुलाने की कोशिश कर रहा था-
”यूं ही चला चल राही, यूं ही चला चल राही, कितनी हसीन है ये दुनिया
भूल सारे झमेले, देख फूलों के मेले, बड़ी रंगीन है ये दुनिया.”
उसे क्या पता था कि झमेला उसके पीछे-पीछे चला आ रहा है. वैसे उस राही को ऐसी गवाही की उम्मीद बिलकुल भी नहीं थी. बचपन में उसने अकबर-बीरबल की कथा ”पेड़ की गवाही” अवश्य पढ़ी थी, पर उसे मात्र गप्प या गल्प समझकर भुला दिया था. फिर उसने एक ब्लॉग ”जूते की गवाही” पढ़ा था, जो एक सच्चा किस्सा था, पर वो तो मिट्टी में जूते के सोल ने सारी पोल खोल दी थी. पर उसके झमेले में ऐसा कुछ नहीं था. न तो वहां कोई पेड़ था, न ही मिट्टी. फिर भी झमेले ने उसको जकड़ लिया.
इस बार झमेला ‘मुर्गों के पंख से भरी बोरी’ के रूप में आया था. वह महिला की हत्या करके ‘मुर्गों के पंख से भरी बोरी’ के पास जलाकर महाराष्ट्र से बंगाल भाग गया था. हुआ यह कि न तो महिला का शव पूरा जल पाया, न ‘मुर्गों के पंख से भरी बोरी’. उस बोरी पर लगा ताबीज भी जलने से बच गया था, सो पुलिस को सुराग मिल ही गया था.
इसी सुराग की डोर को पकड़कर पुलिस ने झमेले का पर्दाफाश कर दिया था और फूलों के मेले देखता-गाता-गुनगुनाता राही जेल के सींखचों की राह चल पड़ा था.
कुछ अलग – थलग पढ़ने का आनंद आया। बधाई !
प्रिय अशोक भाई जी, यह जानकर अत्यंत हर्ष हुआ, कि आपको यह रचना बहुत अच्छी व प्रेरक लगी. हमें भी आपकी प्रोत्साहित करने वाली प्रतिक्रिया बहुत अच्छी लगी. पहिंजियूं वाधायूं.
इस लघुकथा पर कुछ नया लेखन- नया दस्तखत मंच पर कुछ पाठकों की प्रतिक्रियाएं-
1.एक दार्शनिक आरंभ और क्राइम सस्पेंस में अंत रोचक लगा.
2.मजा आ गया.
3.वाह नये निराले अंदाज.
4.सदा की तरह एक निराली कल्पना. बधाई.