देर-सवेर
लोकसभा चुनाव के चलते अंधभक्ति के न जाने कितने उदाहरण देखने को मिल रहे थे. इस अंधभक्ति के चलते अभद्र भाषा की मानो होड़-सी लगी हुई थी. 70 साल से तो ऐसी अभद्र भाषा कभी देखी-सुनी नहीं गई थी.
70 साल! नमिता को 70 साल पहले का किस्सा याद आया. यह किस्सा उनके पड़ोसी तिलकराज का था. तिलकराज यानी साहित्य और शिक्षा के विद्वान! उस समय बहुत कम लोग इतनी शिक्षा ले पाते थे, जितनी तिलकराज ने प्राप्त की थी. इसलिए तिलकराज को अच्छी-खासी सरकारी नौकरी भी मिली हुई थी और वे लिटक्विज़ के भी धुरंधर माने जाते थे.
उनके घर इंग्लिश का अखबार आता था. रीडर्स डाइजेस्ट को भी वे अच्छी तरह डाइजेस्ट करते थे. यह सारा ज्ञान उन्हें लिटक्विज़ में काम आता था. उस बार उन्हें लिटक्विज़ का प्रथम पुरस्कार 50 हजार मिला था. 70 साल पहले 50 हजार का पुरस्कार, यानी मालामाल!
इस मालामाली के चलते उनके सभी सगे-लगे, छोटे-बड़े, खोटे-खरे उनके घर में आ रहे थे, खूब आवभगत करवाकर दान-दक्षिणा भी ले जाते थे. पत्नि ने कहा भी था- ”ये सब अच्छे दिनों के साथी हैं, नहीं तो कभी शक्ल भी नहीं दिखाते थे, संभल जाओ.”
लाख खोटे-खरे हों, पर मां-जाए भाई-बहिनों के आगे पत्नि की बात किसने सुननी थी!
सबकी आवभगत और लेन-देन में 50 हजार कब उड़ गए, पता ही नहीं चला. एक दिन उन्हें भी अगली लिटक्विज़ की एंट्री के लिए कुछ रुपयों की दरकार पड़ गई. सभी ने मुंहं दुबका लिया था. पत्नि के गहने बेचकर वह एंट्री भरी थी. तभी उनके सामने एक अनमोल वचन आया-
”अच्छाई की अति भी अंततः बुराई में बदल जाती है,
अतः किसी बात की ‘अति’ न करें,
अतिशय दानी होने के कारण बलि को बंधना पड़ा,
और अतिशय अहंकार के कारण रावण का नाश हुआ.”
तिलकराज ने अति का अंत करने के लिए संभलना शुरु कर दिया था, भले ही कुछ देर-सवेर हो गई थी.
अंधभक्ति और अति की रौ में नहीं बहना चाहिए, देर-सवेर संभल जाने में ही भलाई है, इस लघुकथा से हमें यह सीख तो मिलती ही है, जो हमें जीवन में समझदारी की राह पर चलना सिखाती है.