कविता – पंक्षी कही ठहरा गए हैं
आज नभ में उड़ान भरते
पंक्षी कहीं ठहरा गये हैं
हम तरसते रहे उम्र भर
आज भीे दोहरा गये हैं
कि दिन भी वो क्या थे हमारे
रोज मिलना रोज बिछड़ना
एक पलड़ा हल्का है तो
उस पर सामान रखना
प्रेम हासिल न हुआ पर
आभार क्यों ठुकरा गये हैं
आज नभ में उड़ान भरते
पंक्षी कहीं ठहरा गये हैं
भूली बिसरी दुनियां छोड़ी
स्वप्न सुन्दर हम बुने थे
मंजिल मयस्सर देख कर
शूली पथ को हम चुने थे
मिरे स्वप्नों की चीख सुनते
कान क्यों बहरा गये हैं
आज नभ में उड़ान भरते
पंक्षी कहीं ठहरा गये हैं
याद हैं तुमको अभी क्या
उस सुबह की पहली किरणें
जब दोबारा जिंदगी ये
चल पड़ी इतिहास रचने
हर राह पर हर मोड़ पर
मिल के काँटों को हटाया
ज्ञान अधूरा है तो हमने
एक दूजे को पढ़ाया
इम्तिहानों की घड़ी को
आप क्यों बिसरा गए हैं
आज नभ में उड़ान भरते
पंक्षी कहीं ठहरा गये हैं
— चंद्रपाल कुशवाहा “सीपी”