पूछ मत मेरे सफ़र का तज’रबा कैसा रहा…
पूछ मत मेरे सफ़र का तज’रबा कैसा रहा
पाँव में छाले लिये अँगार पर चलता रहा
ख़ूब कस मुझको कसौटी पर परीक्षा ले मेरी
हर कसौटी पर ख़रा उतरूँगा ये वादा रहा
शर्तिया बदलाव होगा ज़िन्दगी में एक दिन
आप ही कहिये समय कब एक सा किसका रहा
जानता है जो मिला तुझको उसी का है करम
और तेरा उम्र भर, तूने किया दावा रहा
वे हवा के साथ बहकर दूर तक पहुँचे बहुत
मैं मुखालिफ़ था हवाओं के, यहीं ठहरा रहा
चापलूसों के घरों में झिलमिलाई रोशनी
घर अना के मुद्दतों तक तम घना पसरा रहा
जो लगी थी मजहबों के नाम पर बुझ तो गयी
राख से लेकिन धुआँ अक्सर मियाँ उठता रहा
सतीश बंसल
१८.०७.२०१९