उस पारे बरसे , हम से निर्मोही हो गए बादल।
तरस रही अँखियाँ, के परदेशी हो गए बादल।
पहाड़ों से जूझ रहे, करते नई अठखेलियाँ,
पुरवाई की सुनते नही, विद्रोही हो गए बादल।
हम तो समझे के आये है तो ठहरेंगे चार दिन,
दो पल में ही ओझल हुए , बटोही हो गए बादल।
प्यासे की सुने नही,बिन माँगे भर दे ताल तलैया,
बंजर धरती कहे के मनमौजी हो गए बादल।
परदेशी की तकती अँखियों से बहे सावन भादों
गरजत बरसत संग ,विरही हो गए बादल।
— ओमप्रकाश बिन्जवे ” राजसागर”