धरती हम से पूछ रही है
धरती हम से पूछ रही है
कब तक सींचोगे तुम मुझको
अपनों के ही खून से
ज़रा भी दर्द नहीं होता तुमको
ऐसी होली खेलके
ईश्वर ने भेजा हमको
इंसान के एक रूप में
तुमने उसको बाँट दिया
जाने कितने धर्म जात में
आपस में हम लड़ते रहते
बेमतलब की बातों में
धरती हम से पूछ रही है
क्या मिसाल दे रहे हो तुम
आने वाली पीढ़ी को
नफ़रत की ज्वाला भर रहे हो
मासूमो के दिल में तुम
धरती हम से पूछ रही है
कब तुम मेरे लिए भी सोचोगे
खुद में ही तुम उलझे रहते
दर्द को मेरे कब समझोगे
मर रही हूं शण शण मै
तुम सब की अनदेखी से
खत्म कर रहे हरियाली तुम
खुश हो कांक्रीट के जंगल में?
पीने को पानी नहीं
तुम व्यर्थ बहा रहे इसे शण शण में
जागो अब तो होश में आओ
लो वचन अपने मन में
आपस में बैर भुला तुम
ध्यान लगाओगे पर्यावरण में
— आशीष शर्मा “अमृत”