ग़ज़ल “कभी उम्मीद मत करना”
खिजाओं से बहारों की, कभी उम्मीद मत करना
घटाओं में सितारों की, कभी उम्मीद मत करना
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भले हों दूर वे घर से, मगर अपने तो अपने हैं
गैरों से सहारों की, कभी उम्मीद मत करना
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हुए गद्दीनशीं जो हैं, लुटा भरपूर दौलत को
यहाँ उनसे सुधारों की, कभी उम्मीद मत करना
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गरज से ही डराते हैं, बरसते जो नहीं बादल
फुहारों की यहाँ उनसे, कभी उम्मीद मत करना
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मजहब के नाम पर सबको, पढ़ाते पाठ नफरत का
अमन की उन इदारों से, कभी उम्मीद मत करना
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फिदा केशर की क्यारी पर, यहाँ बहरूपिये कितने
विदेशी चाटुकारों पर, कभी उम्मीद मत करना
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मठों में भ्रष्ट सन्यासी, जहाँ हो ‘रूप’ के लोभी
वहाँ अच्छे विचारों की, कभी उम्मीद मत करना
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(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)