मुक्तक
बाहर की दुनिया के भय से,
खुद पर खूब लगाए पहरे ।
भीतर घोर उदासी छाई,
मुस्कानों से सजाएं चेहरे ।
शब्दों को जो तोलते हरदम,
वो खामोशी क्या समझेंगें ।
अपनों से अनजान वो यारों,
हम तो खैर पराए ठहरे ।
बहती नदियाँ सिमट रही है,
कब तक खैर मनाए लहरें ।
भूले से ना भूल सकेंगे,
दिल पर घाव लगाए गहरे ।
जहरीले बाणों सी बातें,
दिल के टुकड़े कर देती है ।
दीवारें सुनती हैं चीखें,
लोग भले हो जाए बहरे ।