व्यंग्य – हम नहीं सुधरेंगे
आख़िर तो हम इंसान ही हैं न ! तो हम क्यों सुधरें? हम कोई देवता देवी तो हैं नहीं ! जो सुधरें। क्या देवी – देवता पूरी तरह सुधरे हुए हैं? जो हम ही सुधर जाएँ। क्या बड़े -बड़े ऋषि मुनि आचार्य साधु संत सुधरे हुए हैं ? सारे देश और समाज का ठेका लेने वाले ही बिना सुधरे जीवन यापन कर रहे हैं , तो फिर हम आदमियों से ही क्यों कहा जाता है कि हम सुधर जाएँ। हमसे पूर्ण अपेक्षा है कि हम हर हालत में सुधरे हुए रहें।
यदि एक ओर से सबकी पूंछ उठाकर देखा जाए तो तो फिर वही कहावत हमारी आँखों के सामने चरितार्थ होती हुई नज़र आती है कि जिसकी भी दुम उठाई, मादा निकला। कहीं कोई दूध का धुला हुआ दिखाई नहीं देता।पुलिस , प्रशासन, नेता , अधिकारी :सब अपनी -अपनी ड्रेस के नीचे उस पूंछ को भी छिपाए फिर रहे हैं कि कोई उनकी पूंछ ही न देख ले।तो पूंछ भला कैसे उठ पाएगी? इस देश के वासियों के खून में कुछ ऐसे स्थाई डी एन ए रसे -बसे हैं कि जिनको निकाल कर यदि बाहर कर दिया जाय , (जो एक असम्भव कल्पना मात्र है, जैसे चील के घोसलें में माँस एक दुर्लभ वस्तु है , ठीक उसी तरह यहाँ के आदमी में चरित्र और नैतिकता भी चील का माँस ही है।) तो वह आदमी रह ही नहीं जाएगा। वह दिव्य लोक का दुर्लभ प्राणी बन जाएगा। देवता तो मैं इसलिए नहीं कह सकता , क्योंकि इंद्र जैसे महान, जो देवताओं के भी राजा हैं , अहल्या जैसी देवी को भी छूकर अपने देवत्व को कामवासना के रंग में रङ्ग लिया, तो फिर किससे क्या उम्मीद करें?ऋषि विश्वामित्र को भी जब एक अप्सरा अपने आलिंगन पाश में आबद्ध कर सकती है ,तो आम आदमी की तो कोई गिनती ही नहीं। सुअर , गधे, कुत्ते , बिल्ली के चरित्र से यदि मानव -चरित्र को तोला जाय तो भी ये पशु कहलाये जाने वाले पशुता में आदमी से हल्के पड़ जाएंगे।
चरित्र केवल काम वासना तक ही सीमित नहीं है। जब आदमी सबसे अधिक बुद्धिमान है , तो उसका चरित्र भी अधिक व्यापक होगा। चोरी, डकैती, ग़बन, अपहरण, भ्रष्ट आचरण, रिश्वत , राहजनी, हत्या, कामचोरी, मिलावट, शिक्षा माफ़िया द्वारा अभिभावकों औऱ विद्यार्थियों का शोषण, अधिकारियों द्वारा अपने अधीनस्थों के प्रति दुर्व्यवहार, राजनेताओ द्वारा जनता का शोषण, ठेकेदारों द्वारा 100 में 60 % हज़म करने औऱ अधिकारियों के बन्दर बाँट की नियति,हलवाइयों द्वारा नकली दूध , घी , खोए की खोज करके विष का व्यापार, किसानों द्वारा जहर की सुइयाँ लगाकर ज़हरीला दूध और सब्जियां बेचना आदि हजारों मानवीय खोजें हो चुकी हैं , जो आदमी को आदमी कहने के लिए ज़ुबान पर रोक लगा देती हैं। यह आदमी के कपड़े पहने हुए चिकना चुपड़ा हाड़ -माँस का द्वि टाँगी रूप आदमी की परिभाषा से बाहर हो चुका है। आदमी पर कलियुग पूरी तरह कब्जा किए बैठा है। यह सब उसकी बुद्धि का ही नतीजा है। हर चीज की तरह इस बुद्धि के भी दो रूप हैं: एक सद्बुद्धि और दूसरी दुर्बुद्धि। इस समय जो बुध्दि- दौर चल रहा है , उसमें सदबुद्धि औऱ दुर्बुद्धि में 05:95 का अनुपात ही शेष मिलेगा । अब यह 5%भी दिन में हाथ में सूरज की टॉर्च लेकर ही ढूँढनी पड़ेगी। वरना एकछत्र राज्य दुर्बुद्धि का ही है। ‘मैं न कहूँ तेरी , तू न कह मेरी ‘ का अटल सिद्धान्त हर क्षेत्र औऱ विभागों में छाया हुआ है। तभी तो नकली डिग्रीधारी मास्टर नई पीढ़ी को ठिकाने लगाने का काम कर अपना उद्धार कर रहे हैं। डिग्री देने वाले , नम्बर बढ़ाने वाले , डिग्री लेने वाले ने अपना काम कर लिया। अब ये निकले ज्ञान बाँटने, जिन्हें पूरी वर्णमाला भी नहीं आती।
कहाँ -कहाँ टॉर्च मारोगे? ज़्यादा टॉर्च मरोगे तो कहेंगे टॉर्चर करता है। फिर वही बात ‘जिसकी भी दुम उठाई’…. इसलिए ऐसे ही रहने दीजिए। आख़िर ये पूंछ कभी तो उठेगी …. ऐसे नहीं तो वैसे उठेगी। पर उठेगी जरूर।
— डॉ भगवत स्वरूप ‘शुभम’