इरादा
जेठ की तपती लू तन-मन-जीवन को तपा-जला गई थी, ऊपर से सूखे आषाढ़ ने पेड़ों के पत्तों को ही नहीं, प्राणियों के मन-सुमनों को भी मुरझा जाने को विवश कर दिया था. ”यह गर्मी तो कई लोगों के प्राणों को लेकर जाएगी.” मिसेज गुप्ता ने मुख से चूते हुए पसीने को रूमाल से पोंछते हुए कहा था.
तब उसे यह क्या पता था कि यह बात उसके घर के लिए ही सत्य हो जाएगी!
अगले ही दिन सुबह नहा-धोकर वाशरूम से बाहर आए पति पूरे कपड़े तक नहीं पहन पाए थे, कि उनकी सांस ने साथ देने से इनकार कर दिया था.
चंद लमहों में सारी कॉलोनी में समाचार घूम गया था- ”मिस्टर गुप्ता नहीं रहे.”
चलाचली के इस मेले ने दूसरी चलाचली को निमंत्रण दे दिया था.
”गुप्ता साहब का आंतिम संस्कार कौन करेगा?” सबके चेहरे पर यही जिज्ञासा थी.
”बेटा तो उनका कोई है नहीं, भाई आज पहुंच नहीं पाएंगे, दामाद तो अभी पहुंच जाएंगे.” सबका अनुमान था, पर मिसेज गुप्ता से पूछने का साहस कौन करे?
थोड़ी देर में बिरादरी की देवरानियां-जिठानियां भी पहुंच गई थीं. उन्होंने ही यह मोर्चा संभाला.
”मुखाग्नि देने के लिए बड़ा दामाद है न!” जवाब मिला था.
”क्या बात करती हो जीजी! दामाद तो हमारे यहां हाथ तक नहीं लगाता.” एक ने कहा.
”ठीक है तुम अपने पति से कहो, वे तो चाचा के लड़के भी हैं, मौसा के भी!”
”जीजी, वो तो कांधा तक नहीं दे पाएंगे, सर्वाइकल का अटैक जो हुआ है!”
”हमने तो दामादों को ही बेटा माना हुआ है, आप ही बताएं, क्या किया जाए! और क्या चारा है?”
इसका फैसला कौन करता! सबने किनारा कर लिया था.
मिसेज गुप्ता जमाने की सलाखों को तोड़ने के इरादे पर अटल थीं.
इस कथा पर साहित्यिक कथा मंच के एडमिन विनय अंजू कुमार की प्रतिक्रिया-
”बहुत बढ़िया रचना, इन रूढ़ियों को तोड़ना जरूरी है. बधाई इस रचना के लिए.”
सच ही तो है! जमाने की सलाखों को तोड़ने के इरादे पर अटल रहकर मिसेज गुप्ता ने समय को सलाम किया और समाज की प्रचलित रूढ़ियों को तोड़ने के अपने दृढ़ संकल्प पर अटल रहीं.