कविता

कितना कुछ कह ना पाई

कितना कुछ कह ना पाई

वो कितना कुछ छुपाये है
औरत ही तो है ना साहब
हर रिश्ता दिल से निभाये है।
माँ बनकर ममता में ढल गई
जैसा चाहा वो वैसे पल गई
फिर बिटिया बन क्यूँ खल गई
समाज ये कैसी रीत चलाये है।
सजा काटती हैं जंजीरों में
घर की सुख शान्ति माँगती है
मंदिर मस्जिद पीर फकीरों में
सबकी खुशियों संग मुस्कुराये है।
परिवार को खुश रखती अपने
सारे आँसू और  दर्द छुपाकर
उसकी अमीरी का कोई जवाब नहीं
हँस हँस के खुशियां लुटाये है।
सारे घर के हर दर्द की दवा है
रब के लबों से निकली दुआ है
तन्हा रोती महफिलों में हँसती
कितना सितम जमाना ढाये है।
तुम खुश होते हो उसपर अपना
गुस्सा और भड़ास निकालकर
देखो अपनी खुशनसीबी का आलम
औरत ही है रोकर भी तुम्हें हँसाये है।
— आरती त्रिपाठी

आरती त्रिपाठी

जिला सीधी मध्यप्रदेश