कविता

बरखा गीत

श्यामल घटा घनघोर घिर घिर,

व्योम सागर से उमड़कर,

इठलाती हुई,बलखाती हुई,

थामे हुए घट नीर के,

छम से चली,झट से चली।

मार्ग में चपला ठुमक कर,

संग उसके हो चली।

आषाढ़ के बादल उचक कर,

अगवानी में कुछ दौड़ आए

जैसे हों पाहुन घर आए।

पुरवइया ने राग छेड़ा,

रिमझिम फुहारे गीत गाएं।

चपला चमकती, मेघ गरजते,

उपवन में फूली हैं लताएं।

मदमस्त हो मयूर नाचे,

पपीहा भी मीठे स्वर सुनाए।

पंछियों का गूंजा कलरव

हरित वन मन को लुभाएं।

सरिता की कल कल

बूंदों की छम छम

बरखा बहार सब को भाए।

*कल्पना सिंह

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