ग़ज़ल
बुराइयां करते फिरते हैं मेरी ज़माने में
उनको आता है मज़ा मुझे सताने में
ये जो फिर से ताल्लुकात बढ़ाने लगे हो
कसर कोई रह गई है क्या दिल दुखाने में
मैं दिखावे की दुनिया से बाहर आ न सका
तमाम उम्र कट गई बस देखने-दिखाने में
ज़रा सी आँख बंद होने की ही देरी थी
मेरे अपने ही आगे थे मुझे जलाने में
बुरा वक्त ये पहचान करा देता है
कौन उतरेगा खरा दोस्ती निभाने में
— भरत मल्होत्रा