मैत्री के दोहे
मित्र वही जो नेह दे,सदा निभाये साथ
हर मुश्किल में थाम ले,कभी न छोडे़ हाथ ।।
पथ दिखलाये सत्य का,आने ना दे आंच ।
रहता खुली किताब सा,लो कितना भी बांच ।।
मित्र है सूरज-चांद सा,बिखराता आलोक ।
हर पल रहकर साथ जो,जगमग करता लोक ।।
कभी न करने दे ग़लत,राहें ले जो रोक ।
वही मित्र मानो खरा,जो देता है टोक ।।
बुरे काम से दूर रख,जो देता गुणधर्म ।
मित्र नाम ईमान का,नैतिकता का मर्म ।।
मित्र न रक्खे छल-कपट,ना ही कोई डाह ।
तत्पर करने को ‘शरद’,वाह-वाह बस वाह ।।
खुशबू का झोंका बने,मीठी झिरिया नीर।
मित्र रहे यदि संग तो,हो सकती ना पीर ।।
मित्र मिले सौभाग्य से,बिखराता जो हर्ष ।
मिले मित्र का साथ तो,जीतोगे संघर्ष ।।
भेदभाव को भूल जो,थामे रखता हाथ ।
कृष्ण-सुदामा सा ‘शरद’,बालसखा का साथ ।।
मित्र नहीं तो ज़िन्दगी,देने लगती दर्द ।
मित्र रोज़ ही झाड़ दे,भूलों की सब गर्द ।।
— प्रो. शरद नारायण खरे