ग़ज़ल
नम आंखों से भी तुम्हारी खातिर हम मुस्काए थे
सीने पर तमगों के जैसे हमने ज़ख्म सजाए थे
यारों को तो होना ही था मेरे मरने का अफसोस
वो भी छुप-छुपके रोए जो मुझको दाम में लाए थे
सियासतदानों ने ये कैसी आग लगाई नफरत की
जानी दुश्मन बने हुए हैं जो कल तक हमसाए थे
बेबस बूढ़े बाप का बोझ उठता नहीं उन दोनों से
जो दो बच्चे गोद में उसने फूल की तरह उठाए थे
तेवर बदल गए झट से जब बात चली गद्दारी की
नहीं था तिनका दाढ़ी में तो क्यों इतना चिल्लाए थे
— भरत मल्होत्रा