हमारी नदियाँ… उनकी नदियाँ… इतना अन्तर क्यों..?
‘वे पानी को देवता नहीं मानते, उसकी कद्र करते है ‘ यह कटुयथार्थ बयान एक लेखिका का है, जो अभी स्विट्जरलैंड में पानी की वहाँ की सुनियोजित व्यवस्था का सूक्ष्मता से अध्ययन करके वहाँ से लौटकर आई हैं। हम भारतीय लोग ढोंग और दिखावटीपन ज्यादे करते हैं, हम चाहते हैं कि हमारा (ढोंग करते हुए) फोटो अखबारों में प्रकाशित हो। हम, हमारा समाज और हमारी सरकारें एक से बढ़कर एक ढोंगी और प्रपंची हैं। हम किसी भी समस्या जैसे नदी प्रदूषण, पेय जल समस्या, भूगर्भीय जल संचयन, वर्षा जल संचयन (ये सारी समस्याएं एकदूसरे से जुड़ी हुई हैं) आदि इसमें से किसी भी समस्या का समाधान वास्तव में चाहते ही नहीं हैं कि उसका वास्तविक निदान, समाधान हो। समाचार पत्रों के अनुसार कांग्रेसी शासन में ‘गंगा शुद्धिकरण ‘के नाम पर 12000 करोड़ और वर्तमान शासन के पहले कार्यकाल में 20000 करोड़ रूपये खर्च किए गये, इसका मतलब अब तक ‘गंगा शुद्धिकरण’ के नाम पर कुल 32000 करोड़ रूपये (दूसरे शब्दों में तीन खरब बीस अरब रूपये, इतनी बड़ी राशि?) खर्च हो गये, परन्तु समाचार पत्रों, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, भारत सरकार के अनुसार, दुःखद रुप से गंगा की एक बूँद भी साफ नहीं हुई, अपितु उसका प्रदूषण और कई गुना बढ़ गया फिर प्रश्न उभरता है कि आखिर इतनी बड़ी राशि क्या भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया? आखिर कहाँ गया पैसा? इसका उत्तर तो देश को मिलना ही चाहिए।
स्विट्जरलैंड यूरोप का छोटा सा देश है, वहाँ के संस्मरण में एक लेखिका ने बताया है कि वहाँ नगर निगम द्वारा सप्लाई किया गया जल मिनरल वाटर जैसा शुद्ध होता है कि वहाँ के लोग उसी नल का पानी पीते हैं, उन्हें कोई बोतल बंद पानी खरीदने की जरूरत नहीं है, वहाँ किसी घर में आर.ओ.सिस्टम भी नहीं लगा है, वहाँ वर्षा जल को सहेजकर रखा जाता है, अपनी नदियों को वे लोग इतना साफ रखे हैं कि उसकी तली तक, मछलियाँ तैरती दिखाई देतीं हैं। हालांकि ग्लोबल वार्मिंग से वहाँ के ग्लैशियरों के पिघलने से वे लोग भी चिन्तित हैं, वे लोग उसके लिए अभी से तैयारी कर रहे हैं, 1980 से ही वहाँ सरकार प्रदूषित पानी को शुद्ध करके दुबारा उपयोग लायक बनाने के जगह-जगह प्लांट लगाई है। जो लोग अपने घरों में इस्तेमाल किए गये पानी को शुद्ध करने की व्यवस्था कर रखे हैं, उनको प्रोत्साहित करने हेतु उन्हें टैक्स में सरकार छूट देती है, वहाँ के लोग, वहाँ का समाज और वहाँ की सरकार अपनी नदियों, झीलों, ताल-तलैयोंं आदि सभी को प्रदूषित होने से बचाने के लिए प्रयत्नशील हैं, वे नदियों में साबुन में प्रयुक्त फॉस्फेट को प्रतिबंधित कर दिया है, क्योंकि यह रसायन नदियों को प्रदूषित कर रहा था।
इसके ठीक विपरीत भारत की नदियां, झील, तालाब आदि सभी जलश्रोतों को हम शहरों के मलमूत्र, कचरा डालकर उन्हें तबाह करके रख दिए हैं और ‘प्रदूषण मुक्त करने के नाटक’ में खरबों रूपये बेशर्मी से खा-पीकर उन्हें और भी गन्दा और प्रदूषित कर रहे हैं। हमारे ही देश में राजस्थान जैसे राज्य में वहाँ का समाज और उनके पूर्वज लोग पानी की एक-एक बूंद सहेजने में युगोंयुगों से निष्णात हैं, लेकिन हम सब कुछ बर्बाद करने पर तुले हुए हैं, यहाँ सरकारें कुँभ में बयालिस अरब रूपये और इस गरीब देश में बुलेट ट्रेन के लिए ग्यारह खरब रूपये व्यर्थ में खर्च कर सकतीं हैं, परन्तु यहाँ भरपूर बारिश के पानी को सहेजने के लिए उसके पास न उचित नीति है न बजट है? विडंबना ही कही जायेगी कि यहाँ बारिश में लोग बाढ़ में डूब के मरते हैं और गर्मियों में एक एक बूँद पानी के लिए त्राहि-त्राहि मचती है।
हमसे छोटे-छोटे देश कितने बढ़िया ढंग से अपनी समस्याओं का समाधान सुनियोजित तरीके से कर ले रहे हैं, तो हम एक विश्व की बड़ी शक्ति होते हुए भी इन छोटी-छोटी समस्याओं का आखिर समाधान इमानदारी से क्यों नहीं करते हैं? हमें भी अपनी इन समस्याओं का समाधान समय रहते कर लेना श्रेयस्कर है।
— निर्मल कुमार शर्मा