वक़्त
मुखातिब हो रही थी धीरे धीरे
कृष्ण की राधिका बनकर
वक़्त ने छल लिया फिर से
नसीब का सिलसिला बनकर
पैबंद सी लिए थे आह के धीरे धीरे
समय की नजाकत समझकर
वक़्त ने छल लिया फिर से
धुंध की चादर समझकर ।
मुहूर्त गुजर गया उम्र का धीरे धीरे
खामोश लफ्जों से लिपटकर
वक़्त ने छल लिया फिर से
प्यार के चंद शब्द समझाकर ।
आईना भी समझ रहा था धीरे धीरे
दिल का दर्द चेहरा पढ़कर
वक़्त ने छल लिया फिर से
हुस्न का जलबा समझकर ।
— वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़