महज़ बुलबुला था मैं
पानी का था गुमां, महज़ बुलबुला था मैं।।
कैसा खटक गया, जो ज़रा मनचला था मैं।।
छल झूठ शामिल दम्भ था, मेरे वजूद में।
मैंने कहा कब यार, दूध का धुला था मैं।।
बाहर से फ़क़त देख कर, क्यों राय बना ली।
भीतर दबा कुछ और, बड़ा दोगला था मैं।।
कैसे कही सुनी पे, होता मुझको भरोसा।
क्यों फूंकता न छाछ, दूध का जला था मैं।।
अच्छा हुआ दामन, ज़रा जल्दी ही समेटा।
जो था नहीं, तेरे लिए होने चला था मैं।।
एक एक करके साथ, सबने छोड़ ही दिया।
बरसों बरस खिंचा, ऐसा मामला था मैं।।
यूँ रोक न पाया था ‘लहर’ मुझको ज़माना।
दिखता था अकेला मगर काफिला था मैं।।