सोचूंगा कभी खुद की
ऐसा नही था कि फिक्र मेरी कभी मुझको नही थी।
कुछ वक्त से ना बनी और कुछ वक्त से ठनी थी।।
यूँ तो दर – बदर भटकना भी कभी पसंद तो ना था।
ऐसे एक जगह ठहरना पड़ेगा इसका पता ना था।।
कोई अपनो का हवाला देता रहा और कोई अपना,
इस भीड़ में कभी मैं अकेला रहुँगा ये यकीन ना था।
कभी फुरसत ना मिली सोच सकूँ , कैसे सफर करूँगा।
मैं एक जगह रुका रहा और कारवाँ चलता चला गया।।
सोचूंगा कभी खुद की भी,क्या वो समय भी आएगा?
लगता है अब यूँ ही सफर में जीवन कटता जाएगा।