भारतीय समाज में काश्मीर से लगाकर कन्याकुमारी तक ,हर माँ या दादी या नानी नन्हें बच्चों को खूब लाड से ,गाने सुना कर ,कहानियां सुनाकर , खेल खेल में रिझा कर खाना खिलाती हैं। करीब दो वर्ष तक की आयु तक यह सब बेहद संतोष प्रदान करता है। बच्चा और माँ दोनों ही आनंदित होते हैं। मनोवैज्ञानिक इसका पूर्ण समर्थन करते हैं। माँ के हॉर्मोन्स उसको प्रकृतिवश प्रेरित करते हैं कि वह अपने बच्चे की भूख मिटाये। और बच्चा तो केवल भोजन से जुड़ाव रखता है। यदि कोई अन्य व्यक्ति उसको पालता है तो वह माँ को भी याद नहीं रखता।
यहां पाश्चात्य संस्कृति में ऐसा नहीं होता है। जैसे ही बच्चा बैठने लगता है माँ उसको खिलाती अवश्य है परन्तु एक चमचा और काँटा उसको भी थमा देती है। बहुत जल्दी उसे चमचा मुख में अपने आप डालना आ जाता है। वह हाथ भी मुंह तक ले जाना सीख लेता है। माँ भी संग संग अपने चमचे से खिलाती जाती है। दो वर्ष तक की आयु आते आते वह कांटे से भोजन उठाना अमूमन सीख जाता है। तीन वर्ष का बच्चा स्वतः खाना हर हाल में खाने लगता है।
कपडे पहनने का भी तरीका उसे आ जाता है। माँ या नर्सरी की परिचारिका सीधा गला बटन आदि में सहायता दे देतीं हैं।
मेरी क्लास में ३० बच्चे अलग अलग जातियों के। इनमे सबसे नन्हा केतुल पटेल । अफ्रीकन बच्चे उसके दोगुने। अंग्रेज बच्चे महा शरारती और खिलंदड़े। केतुल हर बात में पीछे। मिमियाते हुए और बच्चों से बात करता। उसकी भाषा कौन समझे। पी टी की क्लास में सबसे बाद में कपडे चढ़ाता। जूते तो कठिन मामला है। तस्मे बांधने के लिए करीब आधी क्लास को लाइन में खड़ा होना पड़ता मेरे सामने। अब आजकल वेल्क्रो वाले जूते चल गए हैं। अधिक कहने पर केतुल आंसू बहाने लगता।
पहले दो हफ्ते निकल गए। जब खेल की घंटी बजती है तो अमूमन सभी बच्चे फुर्ती दिखाते हैं और मैदान में दौड़ जाते हैं। वह दस मिनट अध्यापिका के लिए बेहद मायने रखते हैं। सांस लेने की और चाय से गला तर करने की बहुत जरूरत होती है। इस पर भी हफ्ते में दो बार खेल के मैदान में देखभाल करने की ड्यूटी लगती है। समय पर पहुंचना जरूरी होता है। जब मेरी ड्यूटी होती थी तो केतुल को कोट और मफलर आदि पहना कर बाहर निकालना कठिन लगता।
फिर तीसरे हफ्ते में वह बीमार पड़ गया। आया तो और भी कमजोर लग रहा था। माँ ने सीख दी कि बेंच पर बैठकर किताब पढ़ना .दौड़ना भागना नहीं। प्लेग्राउंड की असिस्टेंट ने उसको अन्य बच्चों के संग खेलने के लिए कहा तो उसने माँ का हुकुम सूना दिया। लंच टाइम में वह मुझसे उलझ पडी। बच्चों को एक्टिव रखने से वह तगड़े बनते हैं आदि आदि। मैंने हाँ में हाँ
मिला कर बात बदल दी।
ज़ाहिर था कि उसका वज़न कम हो गया था। उसकी माँ सविता पटेल सुबह सुबह मुझसे मिलने आई। उसके खाने का कटोरदान मुझे थमाकर बोली ,” रोटली भाजी है प्लीज आप उसे लं च में खिला देना। ” दूसरी स्टील की डिब्बी में गाजर का हलवा था। वह भी मीठे में खाने के लिए देकर जल्दी जल्दी जाने लगी। मैंने कहा कि मैं उसको अपने हाथ से भोजन नहीं कराऊंगी। यह नियमो के खिलाफ है। हाँ मैं सुपरवाइज़ कर दूँगी। वह बुरा सा मुंह बनाकर चली गयी। उसको दूकान खोलनी होती थी ठीक नौ बजे।
लंच टाइम में घर से खाना लानेवाले अन्य सभी बच्चों की मेज़ पर मैं जा बैठी। सब अपना अपना टिफिन खोलकर आराम से खा रहे थे। केतुल से अपना भारतीय स्टाइल का कटोरदान नहीं खुला। मैंने मदद कर दी। अब वह ना तो रोटी तोड़े और न खाये। बहुत बार मैंने समझाया तो धीरे धीरे अनगढ़ ढंग से कुछ निवाले ही वह खा पाया। एक एक करके सब बच्चे खा पी कर बाहर खेलने भाग गए। केतुल भी उनके संग जाना चाह रहा था मगर उसने खाना नहीं ख़तम किया था। हारकर जब सफाई वाली मेज उठाने आई तो उसने डिब्बा बंद कर दिया और केतुल भूखा ही रह गया। हलवे का डिब्बा अनखुला रहा। छुट्टी के समय मैंने सविता को सब बताया तो वह रोने लगी।
मैंने समझाया और कहा कि घर पर उसको आप खिलाना छोड़ दो। दो चार बार के बाद वह खुद से खाना सीख जाएगा। तीन महीने के बाद मैंने देखा कि उसकी प्रगति बहुत कम हुई थी अतः मैंने केतुल को प्यार में लेकर उससे पूछा। वह अटक-अटक कर बोला कि सबके सामने वह रोटी सब्जी खाने में शर्माता है। उसको भी एलन की तरह कांटे छुरी से खाना है। बहुत समझाने पर सविता उसे स्कूल द्वारा तैयार किया गया निरामिष भोजन खिलाने के लिए तैयार हुई। उसे अनेक शंकाएं थीं। मसलन इसमें गोश्त के हाथ लगे होंगे , नमक के बिना तैयार खाना उसका लाडला कैसे निगल पाएगा ,काँटा उसके मुंह में घाव न करदे आदि आदि।
शुरू शुरू में जब हम इंग्लैंड आये थे , यह सभी शंकाएं सही थीं। एक जैसा खाना सबको दिया जाता था। अब अध्यापिकाओं की समझ जैसे जैसे बढ़ती गयी ,और अन्य समुदायों की मान्यताओं का आदर बढ़ा ,सरकार की ओर से अनिवार्य भोजन में धर्म के अनुसार विविधता प्रदान की गयी है। अब मुसलमानो के लिए हलाल गोश्त अलग से परोसा जाता है। निरामिष बच्चों के लिए अलग से शुद्ध भोजन बनता है। और हर हाल में यह ख्याल रखा जाता है कि भोजन पौष्टिक ,सम्पूर्ण और सफाई से बना हो। नमक बिलकुल बंद कर दिया गया है। कुकिंग में चर्बी का प्रयोग कतई निषिद्ध है। परिचारिकाओं एवं पकानेवालियों के लिए ट्रेनिंग कोर्स अलग से हर कॉलेज में उपलब्ध हैं। उनको सभी धर्मो के विषय में बताया जाता है।
सविता अच्छी माँ है मगर वह यह नहीं देख सकी कि उसका बेटा अपने हमजोलियों से एकाकार होना चाहता था। उसको उनके संग रहते हुए अपनी विशिष्ट अस्मिता को ओढ़े रहना भारी लगता था। आखिर पांच वर्ष की उम्र क्या होती है ? अपने धर्म आदि के खोल में बंद बच्चे ना तो भाषा पकड़ पाते हैं और ना यहां का जीवन। सविता धर्म को लेकर बहुत क्षुब्ध थी। परन्तु बिना गोश्त वाला पौष्टिक भोजन खाकर वह बालक खुश था। उसकी सेहत सुधरने लगी। दोस्त भी बन गए। भाषा भी आ गयी। हम प्लेग्राउंड में झगड़ा ना करनेवाले बच्चों को हैप्पी फेस वाला बिल्ला देते थे। केतुल ने हर हफ्ते यह बिल्ला जीतना शुरू किया। इसी तरह खाना बर्बाद न करने का भी हम इनाम देते थे। जो बच्चे सब खा लेते थे उनको बिल्ला मिलता था। धीरे धीरे केतुल भी अपनी प्लेट का भोजन ख़तम करने लगा।
अब बारी थी सविता को सीखने की। सात हफ्ते बाद बाद दिवाली आ जाती है। अक्टूबर का आख़िरी हफ्ता छुट्टी का होता है। इसके पहले ही सभी स्कूलों में फसल कटाई के उत्सव दर्शाये जाते हैं। इनमे यहूदियों का हनूका ,चीनियों का चंद्रोत्सव और हिन्दुओं का दिवाली आता है। मैंने सविता को बुलाया और उसे बच्चों के संग रंगोली बनाने के लिए कहा। वह बहुत खुश हो गयी। हफ्ते के पांच दिन दो घंटे के लिए वह हमारी कक्षा में आ जाती और छह बच्चों से कागज़ पर रंगोली के नमूने बनवाती। पांच दिन के बाद यह सारे नमूने स्कूल की मुख्य दीवार पर सजा दिए गए प्रधान अध्यापिका के कमरे के बाहर। फसलों के प्रदर्शन के लिए वह जलेबी ले आई। मैंने एक थाली में कटोरियों में अनेक तरह की दालें और अनाज सजाये। उसने उनपर नाम लिखे।
दिवाली खूब अच्छी रही। न केवल केतुल बल्कि उसके सभी मित्र केतुल के धर्म से परिचित हुए। यह अधिक प्रभावी कदम रहा।
इस प्रकार केतुल का आत्म विशवास खूब निखर गया। अब वह सबसे पहले तैयार होकर खेल के मैदान में दौड़ जाता। पढ़ाई भी ठीक ठीक करने लगा। सविता क्रिसमस पर अपनी दूकान से ढेरों चॉकलेट बच्चों के लिए लाई। ईस्टर पर भी उसने ईस्टर एग्स पूरी क्लास को दिए।
इसे कहते हैं सामाजिक समन्वय। हमारे देश में भी इसकी बहुत जरूरत है।