ग़ज़ल
ज़िन्दगी इतनी उदास क्यूं है
भटकती हुई-सी आस क्यूं है ।
सब कुछ है दिखावटी,नकली,
खोखला इस कदर हास क्यूं है ।
दूर-दूर तक है फैली खामोशी,
ग़मगीन हर दिवस,मास क्यूं है ।
शंका के बादल छाये गगन पर,
सिसकता यहां विश्वास क्यूं है ।
कितने हैं ज़िन्दा,कहना कठिन,
चलती-फिरती हर लाश क्यूं है ।
दोरंगी हो गई हैं अब हवाएं,
सच में फरेब का वास क्यूं है ।
रोटी की कमी नहीं है तो भी,
खा रहा आदमी घास क्यूं है ।
ज़मीं पर रहते,पर उड़ते ‘शरद’,
सबको भाता आकाश क्यूं है।
— प्रो. शरद नारायण खरे