कृष्ण के दृष्टिकोण – आज के सामाजिक सन्दर्भ में
हिन्दू धर्म में हम कृष्ण को गुरु मानते हैं। मेरे अनुसार कृष्ण केवल गुरु ही नहीं हैं, क्योंकि गुरु तो अन्धकार से प्रकाश में ले जाते हैं। कृष्ण ने तो अन्धकार को नजरअंदाज करते हुए भूत-वर्तमान और भविष्य के प्रकाश को स्थापित करने का कार्य किया है। कृष्ण ने इंद्र को छोड़कर प्रकृति पूजन को बताया। यह भी किसी सूर्य के प्रकाश से कहाँ कम है? लेकिन आज के समय के अनुसार गोवर्धन तक ही पूजन समाप्त नहीं होना चाहिए, बल्कि अंधाधुंध प्रकृति दोहन के कल्चर में जब हम कॉलोनी के बागों की स्थापना कर उनका पोषण करते हैं तो भी कृष्ण की याद आती है, जब हम हमारे मोबाइल पर स्क्रीन गार्ड्स और कवर लगाते हैं तब भी वही याद आते हैं कि, “जो चीज़ तुम्हारे लिए फायदेमंद है उसकी सुरक्षा करो उस पर पूरी श्रद्धा रखो। अपनी पॉजिटिव एनर्जी उसे दो।”
कृष्ण खुद शासक होकर मनुवाद की अवधारणा को बदलते हैं, वे कहते हैं तुम भौतिक रूप में मनु की संतान हो सकते हो लेकिन स्वरुप (अपने सही रूप) में आत्मा हो – यहां वे एकत्व की बात करते हैं। बताते हैं कि हम सभी में एक ही बीज है। राजा से लेकर रंक तक और विशालकाय व्हेल से लेकर ना दिखाई देने वाले जीवाणुओं में एक शब्द “आत्मा” से समानता स्थापित कर लेना कितने गहन अध्ययन का परिणाम है! और केवल बताया ही नहीं, अपने गरीब दोस्त सुदामा के पैर अपने आंसुओं से धोकर यह साबित भी किया कि उनकी दृष्टि सभी के लिए एक जैसी ही है। कथनी-करनी में फर्क नहीं है।
आत्मा की अवधारणा बताते हुए कृष्ण मृत्यु का भय भी मिटा देते हैं। वे कहते हैं,
नैनं छिद्रन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक: ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत ॥
आत्मा को न शस्त्र काट सकते हैं, न आग उसे जला सकती है। न पानी उसे भिगो सकता है, न हवा उसे सुखा सकती है। हम अपने आत्म-स्वरुप में अमर हैं और जो अमर है उसे मृत्यु का डर कैसा? कृष्ण बिना डर के जीने की प्रेरणा दे देते हैं।
अध्यात्म की गहराइयों के साथ ही कर्मशील होने को भी कृष्ण कहते हैं। एक बार हम न्यूटन की गति के तीसरे नियम पर एक नज़र डालें – Every action has Reaction. Equal and Opposite. कृष्ण भी तो हमारे actions की सीमा बता देते हैं – “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन” कहकर। कहते हैं – तुम्हारा अधिकार सिर्फ कर्म तक ही है फल तुम्हें तुम्हारे कर्म के अनुसार मिल ही जाएगा – Equal and Opposite. एनर्जी ट्रांसफॉर्मेशन भी का मूलभूत सिद्धांत यही है। तभी तो ओशो सरीखे विद्वान् भी यही मानते हैं कि “कृष्ण हुए तो अतीत में – लेकिन हैं भविष्य के।”
ऑर्गेनिक खाद्य की तरह ही कृष्ण ने उचित खाने की प्रेरणा भी दी है। मक्खन-मिश्री जैसे घर के बने पदार्थ फ़ास्ट-फ़ूड से कहीं बेहतर हैं, हम सभी इन बातों को अब फिर से समझ पा ही रहे हैं। घर में ही स्वास्थ्यवर्धक भोजन हो इसके लिए गाय जैसे पालतू पशुओं और पर्यावरण सरंक्षण हेतु जो कार्य श्री कृष्ण ने किये वे भी अनुसरणीय हैं।
संगीत के जरिये हम स्वस्थ और खुश रह सकते हैं। उच्च हैप्पीनेस इंडेक्स वाले राष्ट्रों का अध्ययन करें तो हम निःसंदेह ही पाएंगे कि उन्होंने अपने वातावरण को संज्ञान में लेते हुए संगीत निर्माण और उसका प्रयोग भी किया है। हमारे देश में बांस की खेती होती है तो बांसुरी एक सर्व सुलभ वाद्य यंत्र है, जिसका स्वर हमारे वातावरण को प्रतिध्वनि युक्त संगीत से गुंजायमान कर हमें न सिर्फ मानसिक शान्ति देता है वरन कोशिकाओ के स्वास्थ्य और रक्त संचार आदि शारीरिक गतिविधिओं को भी अच्छा करता है। कृष्ण ने इतने वर्षों पूर्व म्यूजिक थेरेपी बतलाई, इसके लिए उनका दिल से धन्यवाद बनता ही है।
कृष्ण योगीराज हो कर्म और ज्ञान की सही दिशा भी दर्शाते हैं। योगबल पर वे सूक्ष्म शरीर के साथ विचरण करते हैं, जिसे आज कई गुरु Out of Body Experience का टाइटल देते हैं। यहां कृष्ण बताते हैं कि किसी भी बात को मानो नहीं जानो। अनुभव का ज्ञान और ज्ञान का प्रेक्टिकल अनुभव कर के ही आप उस ज्ञान पर शासन कर सकते हैं। कृष्ण योग कर योगीराज बने – बिना योग किये नहीं अथवा केवल योग की किताबें पढ़कर नहीं।
कृष्ण आत्म संयम की बात भी करते हैं –
“ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥”
आज के समय में जब ग्लोबल वॉर्मिंग बढ़ती जा रही है, अपने आप पर नियंत्रण रखना – खुदको कूल रखना उतना ही जरूरी है, जितना कि सही भोजन करना। इस श्लोक में कृष्ण कहते हैं कि भौतिक चीज़ों के बारे में लगातार सोचते रहने पर उनसे एक बंधन (bond) बन जाता है। उन्हें पाने की इच्छा होती है और नहीं पा पाए तो क्रोध आता है। यहाँ कृष्ण अपनी ही एक बात को उल्टा कहते हैं। गीता के एक श्लोक में वे अर्जुन को जीतने पर धरती पर राज करने की बात करते हैं और दूसरी तरफ इस श्लोक में अनासक्ति की।
यहाँ थोड़ा सा अलग हटकर मैं कहना चाहूंगा कि, विदेशों में लॉ ऑफ अट्रैक्शन की एक अवधारणा आई थी। उस पर विस्तार से कभी फिर चर्चा करेंगे, लेकिन यह कुछ इसी तरह की है कि जिस वस्तु को पाने की हमारी तीव्र इच्छा होती है, उसका उचित तरीके से मनन करें तो वह हमें प्राप्त हो सकती है। हालाँकि उचित तरीके से उस वस्तु आदि की फ्रिक्वेंसी तक पहुंचना एक प्रकार का योग ही है, लेकिन इस प्रयोग को करने में भी काफी लोग अपनी फ्रिक्वेंसी वहां तक नहीं पहुंचा पाते हैं और गुस्से व निराशा का शिकार हो जाते हैं। कृष्ण ने यहाँ इन्द्रिय संयम की बात कही है कि, “पाने के लिए कर्म ज़रूर करो लेकिन ना मिलने पर निराश नहीं हो।” जिस तरह अपनी एक कविता में हरिवंश राय बच्चन कहते हैं कि, “असफलता एक चुनौती है, स्वीकार करो”
कृष्ण समय आने पर प्राथमिकताएं तय करने में एक सेकण्ड भी नहीं लगाते। तुरंत निर्णय ले लेते हैं। दुशासन द्वारा द्रोपदी के वस्त्र उतारने पर वे अपने मित्रों का जुए में सबकुछ हार जाने का दुःख, अत्याचारियों से अपने सम्बन्ध आदि को भुला कर सबसे पहले वे द्रोपदी को वस्त्रहीन नहीं होने देते। और यहीं, इसी स्थान पर जहां द्रौपदी के साथ दुर्व्यवहार हो रहा था, वे हम सभी को समझा देते हैं कि धृतराष्ट्र की तरह अंधे मत बनो – पुत्र या किसी भी मोह में अपनों द्वारा किये जा रहे दुष्कर्मों पर आँखें मत मींचों, ना ही भीष्म की तरह कुर्सी से बंधित हो ब्रह्मचारी होकर भी ऐसे दृश्य चुपचाप देखो और सबसे बड़ी बात किसी सदियों पुराने दरबारी की मानसिकता की तरह, भावनात्मक रूप से कठोर या उदासीन हो, अपने मोबाइल में ऐसे कृत्यों के वीडियो मत बनाओ। साथ ही ना तो पांडवों की तरह राज्य हारने के दुःख में अपने ही स्वजनों की रक्षा करने में असमर्थ-असहाय बनो और ना ही दुर्योधन-दुशासन की तरह जीत के घमंड में ऐसे कार्य करो जिनसे बाद में पछताना पड़े और अपना रक्त दूसरों को पिलाना पड़े। साथियों, कृष्ण बनने का अवसर मत छोडो।
कृष्ण के चरित्र पर कई लोग कहते हैं कि उन्होंने 16000 शादियां की थीं, लेकिन इस बात को सही तरीके से समझें तो वह यह है कि एक दुष्प्रवृत्ति के व्यक्ति ने 16000 लड़कियों के साथ रेप किया था और कृष्ण ने उन सभी को अपनाया। प्रश्न यह उठता ही है कि सदियों पहले का यह सन्देश क्या आज के समाज के लिए उपयुक्त नहीं है?
कृष्ण अपने दुश्मनों को भी सुधरने का समय देते हैं। वे प्रहार तभी करते हैं जब बात सिर के ऊपर से गुजर जाए। ऐसे गुण हमें आज और भविष्य के व्यक्तियों में चाहिए हीं। वे कहते हैं “… अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥” जब-जब अधर्म में वृद्धि होती है – तब धर्म की उन्नति के लिए मैं आता हूँ। इसका अर्थ यह नहीं कि हम धर्म की हानि होने पर कृष्ण के आने का इन्तजार करें। नहीं!! बल्कि कृष्ण के उन कर्मों का आज के समयानुसार अनुसरण करें, जो उन्होंने अपने समय में धर्म की हानि को देखकर किये थे। कृष्ण हम सभी में हैं। यह जान लें और अपने भीतर स्थित कृष्ण को समय आने पर अवतरित ज़रूर करें। धर्म की हानि हमारे अंतर् में भी होती है अपने अंदर के कंस को मारकर आंतरिक कृष्ण को जीवित रखना आप-हम सभी का कर्म है – कर्तव्य है और यही तो कृष्ण चाहते हैं – आप में रहना।