ग़ज़ल
नफ़रतों से मिला फायदा कुछ नहीं।
नफ़रतों ने दिया ज़ायका कुछ नहीं।
ख़र्च सब कर दिया है बचा कुछ नहीं
यूँ हमारे लिए अब रहा कुछ नहीं।
ताकते झाँकते रह गये सब अदू,
पर सही ले सके जायजा कुछ नहीं।
मंच पर आज चढ़ दे रहे सीख वो,
झूठ सच का जिन्हें है पता कुछ नहीं।
बे ख़ता अनगिनत जेल में बंद हैं,
क़ातिलों के लिए पर सज़ा कुछ नहीं।
उस तरफ एक कमज़ोर सा है रक़ीब,
खेल में इसलिए अब मज़ा कुछ नहीं।
रोज़ वादा किया आ रहे दिन भले,
फेंकता ही रहा पर दिया कुछ नहीं।
— हमीद कानपुरी