धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

सृष्टि का सबसे प्राचीन हमारा प्राणों से प्रिय आर्यावर्त वा भारत देश

ओ३म्

हमारा देश भारत नाम से जाना जाता है। यह नाम इसका परवर्तित नाम है। हमारे देश की धर्म, संस्कृति तथा सभ्यता एक अरब छियानवें वर्षों से अधिक प्राचीन है। सृष्टि बनने के बाद परमात्मा ने सबसे पहले मनुष्यों की सृष्टि तिब्बत में की थी। तिब्बत का नाम किसी मनुष्य व राजा ने अपने विवेक से घोषित नहीं किया अपितु यह हमारे पूर्वजों द्वारा वेद के शब्दों के आधार निश्चित किया गया था। जिस समय तिब्बत में ईश्वर ने मानव जाति की प्रथम उत्पत्ति की थी उस समय न तो तिब्बत में मनुष्य रहते थे और न ही संसार के शेष भागों में कहीं पर मनुष्य रहते थे। परमात्मा ने अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न मनुष्यों को वेदों का ज्ञान दिया था जो कि सब सत्य विद्याओं से युक्त ज्ञान है। यह ज्ञान परमात्मा ने चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा की आत्माओं में जीवस्थ स्वरूप अर्थात् जीवात्माओं के भीतर अपनी सर्वान्तर्यामी सत्ता की उपस्थित के द्वारा ऋषियों की आत्माओं में प्रेरणा के द्वारा दिया था। उन ऋषियों की स्मरण शक्ति परमात्मा ने विशेष प्रकार की बनाई थी जो एक बार किसी बात को जान लेते थे या ईश्वर की प्रेरणा होती थी, उसे वह भूलते नहीं थे। इन ऋषियों से यह ज्ञान ब्रह्माजी नाम के अन्य ऋषि ने प्राप्त किया। इसके बाद इन ऋषियों ने वेदों के ज्ञान को अन्य मनुष्यों को उपलब्ध कराया वा पढ़ाया। इस प्रकार से अध्ययन व अध्यापन की प्रक्रिया आरम्भ हुई थी जो वर्तमान समय तक चली आ रही है। वर्तमान समय में मनुष्य गुरुकुलों में अथवा किसी आचार्य से संस्कृत की आर्ष व्याकरण का अध्ययन करते हैं और निरुक्त, छन्द, कल्प व ज्योतिष आदि का ज्ञान प्राप्त कर वह वेदों के मन्त्रों के अर्थ करने में पात्रता प्राप्त करते हैं। सृष्टि के आरम्भ में सभी मनुष्य वेदों के विद्वान, जानकार एवं अनुयायी थे। यही मनुष्य सृष्टि में परवर्ती पीढ़ियों के पूर्वज हैं और इस कारण से आज संसार के सभी मनुष्यों के पूर्वज सृष्टि के आदिकालीन ऋषि व इतर मनुष्य ही सिद्ध होते हैं। इंग्लैण्ड के प्रो0 मैक्समूलर ने भी इस तथ्य को स्वीकार किया है। इस आधार पर यह भी निष्कर्ष निकलता है कि आज संसार में जितने भी मत-मतान्तर प्रचलित हैं उन सबके पूर्वज वेदानुयायी आर्य वा ऋषि मुनि ही थे जो वेद वर्णित ईश्वर के गुणों के आधार पर ईश्वर की उपासना करते थे और वेद विधान के अनुसार देवयज्ञ अग्निहोत्र सहित पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ एवं बलिवैश्वदेव यज्ञ करते थे। यह परम्परा महाभारत युद्ध तक विद्यमान रही। महाभारत युद्ध के कारण देश एवं विश्व में अव्यवस्थाओं की प्रचलन हुआ जिसके कारण कालान्तर में वेद विलुप्त हो गये और वेदों की शिक्षाओं को भूलकर महाभारत के उत्तरकालीन हमारे देशवासी व पूर्वज अज्ञान व अन्धविश्वासों सहित मिथ्या परम्पराओं में फंस गये। हमारे देश व विश्व में जितने भी मत-मतान्तर प्रचलित हैं वह सभी महाभारत युद्ध के बाद अज्ञानता के कारण उत्पन्न व प्रचलित हुए हैं। सभी मतों में अविद्या है परन्तु इस तथ्य के प्रत्यक्ष होने पर भी कोई मत व सम्प्रदाय अपने मत की अविद्या, अज्ञान, अन्धविश्वासों व मिथ्या परम्पराओें को अविद्या से युक्त होना स्वीकार नहीं करता। यह भी जान लें कि महाभारत काल तक हमारे देश का नाम आर्यावत्र्त प्रसिद्ध रहा है। भारत में यवनों के आने पर इसका नाम हिन्दुस्तान हो गया और अंग्रेजों द्वारा देश को गुलाम बनाने पर इसका नाम इण्डिया रखा गया। देश की स्वतन्त्रता के बाद अंग्रेजी में देश का नाम इण्डिया तथा हिन्दी व अन्य भाषाओं में देश का नाम भारत, यह दोनों नाम प्रचलित हुए। भारत के नागरिक अपने आप को भारतीय व इण्डियन कहते व मानते हैं। यह हमारे देश के संविधान के अनुसार स्वीकार्य है।

हमारे देश का धर्म वैदिक धर्म तथा संस्कृत वैदिक संस्कृति है। यह धर्म व संस्कृति ही न केवल सृष्टि की आदि कालीन धर्म व संस्कृति है अपितु यह मनुष्य के लिये श्रेष्ठ व उत्तम है। वैदिक धर्म व संस्कृति सभी प्रकार के अज्ञान, अविद्या, अन्धविश्वासों व मिथ्या परम्पराओं से मुक्त है। वेदों के सभी सिद्धान्त व मान्यतायें सत्य सिद्धान्तों पर आधारित हैं और देश व विश्व के सभी प्राणियों के लिये हितकर व कल्याणप्रद हैं। वेद हमें इस संसार के रचयिता का सत्य स्वरूप व गुण, कर्म एवं स्वभाव से परिचित कराते हैं। वेदाध्ययन से हमें जीवात्मा का स्वरूप व इसके गुण, कर्म व स्वभाव का सत्य ज्ञान होता है। सृष्टि का कारण सत्व, रज व तमों गुणों वाली प्रकृति है। इस प्रकृति की विकृति ही यह सृष्टि है। हमारे ऋषियों ने दर्शन ग्रन्थ में सृष्टि की उत्पत्ति की प्रक्रिया को प्रस्तुत किया है। वेद व वैदिक साहित्य में जीवात्मा का सूक्ष्म शरीर जो सृष्टि उत्पत्ति के समय बना था और प्रत्येक जन्म में जीवात्मा के साथ रहता है और प्रलय होने पर ही उसका अस्तित्व समाप्त होता है, इस सूक्ष्म शरीर का ज्ञान भी वेदों व वैदिक साहित्य से ही होता है। संसार के किसी मत को जीवात्मा के सूक्ष्म शरीर के रहस्य व स्वरूप का ज्ञान नहीं है। हमारा इस जन्म में जो सूक्ष्म शरीर है वही पूर्वजन्म व इस कल्प के सभी सहस्रों व लाखों पूर्वजन्मों में था और वही सूक्ष्म शरीर इस सृष्टि की प्रलय होने तक विद्यमान रहेगा। यदि परमात्मा ने सृष्टि की उत्पत्ति के समय सभी अनन्त जीवात्माओं के सूक्ष्म शरीर न बनाये होते तो फिर सूक्ष्म शरीरों के न होने पर किसी भी प्राणी का जन्म व उत्पत्ति होनी सम्भव नहीं थी। यह सूक्ष्म शरीर आंखों से देखा नहीं जा सकता। हमारे ऋषियों ने इसका प्रत्यक्ष किया था और अपने प्रत्यक्ष ज्ञान के आधार पर इसका शास्त्रों में उल्लेख किया। ऋषि दयानन्द ने भी इसका प्रत्यक्ष किया और इसका अपने अमर ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में वर्णन किया है। वेद हमें बतातें हैं कि जीवात्मा जन्म व मरण धर्मा है। प्रत्येक जन्म के बाद जीवात्मा की मृत्यु एवं मृत्यु के बाद जन्म होना सृष्टि का अटल नियम है। जो इस पुनर्जन्म के सिद्धान्त को नहीं मानते वह अज्ञान व अविद्या से ग्रस्त है जो कि वेद एवं वैदिक साहित्य के अध्ययन से दूर होती है। पुनर्जन्म के अतिरिक्त वेद जीवात्मा का मोक्ष भी स्वीकार करते हैं। मोक्ष वह अवस्था होती है जिसमें जीवात्मा जन्म व मरण के चक्र से 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्षों से भी अधिक अवधि तक सभी बन्धनों से छूट जाता है और परमात्मा के सान्निध्य में रहकर आनन्द का भोग करता है। मोक्ष में विद्यमान आत्माओं से वह मुक्त आत्मा मिलता व संवाद करता है तथा पूरे ब्रह्माण्ड का भ्रमण भी करता है। यह वैदिक धर्म एवं संस्कृति की विशेषतायें हैं जिसे अन्य मत-मतान्तर के लोग वेदों से ग्रहण कर अपने मतों की अविद्या को दूर कर उसे सत्य सिद्धान्तों से युक्त कर सकते हैं। वैदिक सिद्धान्त विश्व को एक अत्युत्तम एवं महत्वपूर्ण देनें हैं।

हमारे देश आर्यावर्त में सहस्रों ऋषि हुए हैं जिन्होंने वैदिक धर्म एवं संस्कृति का विश्व में प्रचार व प्रसार किया है। उन्हीं के कारण सृष्टि की आदि से महाभारत युद्ध तक हमारे देश का विश्व में चक्रवर्ती राज्य रहा है। इसका उल्लेख महाभारत आदि ग्रन्थों को पढ़कर ऋषि दयानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश में किया है। न केवल ऋषि अपितु हमारे राजा भी ऋषियों से विद्याओं का अध्ययन करते थे और उसे अपने जीवन में धारण करते थे। राम, कृष्ण आदि महापुरुष हमारे ऐसे महापुरुष हुए हैं जिनके समान विश्व इतिहास में महापुरुष नहीं हुए। उनका यशस्वी इतिहास महर्षि बाल्मीकि रचित रामायण तथा वेदव्यास रचित महाभारत में सत्य सत्य वर्णित है। हमारा दुर्भाग्य है कि सृष्टि के आरम्भ से महाभारत काल व उसके बाद का इतिहास हम सुरक्षित नहीं रख पाये। नालन्दा एवं तक्षशिला के विशाल पुस्तकालयों सहित देश के अनेक पुस्तकालयों मे ंहमारा जो साहित्य व इतिहास ग्रन्थ थे उसे मुस्लिम हमलावरों ने अग्नि लगाकर नष्ट कर दिया। इससे विश्व के सज्जन लोग अपने पूर्वजों के सत्य इतिहास से वंचित हो गये हैं। इतना होने पर भी आज हमारे पास वेद, वेदांग-उपांग सहित उपनिषद, आयुर्वेद एवं अन्य अनेक विषयों के ग्रन्थ सुलभ है। वेद व वैदिक साहित्य ही ऐसा ज्ञान है कि जिसका अध्ययन एवं आचरण कर मनुष्य अपनी आत्मा और ब्रह्माण्ड के रचयिता ईश्वर का प्रत्यक्ष व साक्षात्कार कर सकता है। हमारे प्राचीन काल के सभी ऋषि व योगी तथा उन्नीसवीं शताब्दी के सर्वतोमहान ऋषि दयानन्द सरस्वती ने भी योगाभ्यास के द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार किया था और उससे प्राप्त ज्ञान आदि शक्तियों के द्वारा देश देशान्तर में वेदों की मान्यताओं व सिद्धान्तों का प्रचार किया। अतीत में हमारा देश विश्व गुरु रहा है और आज भी है। कोई स्वीकार करे या न करे परन्तु वेदों में जो ज्ञान है, उपनिषद, दर्शन एवं मनुस्मृति में जो ज्ञान है तथा सत्यार्थप्रकाश एवं ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका सहित आयुर्वेद एवं ज्योतिष के ग्रन्थों के कारण हमारा देश, वैदिक धर्म व संस्कृति से पूर्णरूपेण परिचित व विज्ञजन आज भी विश्व गुरु हैं।

आज विश्व में सर्वत्र अशान्ति है जिसका कारण मत-मतान्तरों, राजनीति दलों तथा देशों के अपने-अपने हितों में जो अविद्या का अंश है, उसके कारण से है। यदि अविद्या दूर हो जाये तो सभी समस्याओं का हल व समाधान ढूंढा जा सकता है। वेदों के अध्ययन व प्रचार से सभी समस्याओं का समाधान प्राप्त किया जा सकता है। ऋषि दयानन्द के जीवन काल में एक दिन श्री मोहनलाल विष्णुलाल पण्डया ने उनसे पूछा, भगवन! भारत का पूर्ण हित कब होगा? यहां जातीय उन्नति कब होगी?’ स्वामी जी ने उत्तर दिया, एक धर्म, एक भाषा और एक लक्ष्य बनाए बिना भारत का पूर्ण हित और जातीय उन्नति होना कठिन है। सब उन्नतियों का केन्द्र स्थान ऐक्य है। जहां भाषा, भाव और भावना में एकता जाए वहां सागर में नदियों की भांति सारे सुख एक-एक करके प्रवेश करने लगते हैं। मैं चाहता हूं कि देश के राजे-महाराजे अपने शासन में सुधार और संशोधन करें। अपने राज्य में धर्म, भाषा और भावों में एकता करें। फिर भारत में आप ही सुधार हो जाएगा।’ इसी के साथ लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य